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नागप्रचारिणी पत्रिका
देवांगना इन दो धाराओं के प्रकट होने पर अंजलिमुद्रा में अपनी श्रद्धा प्रकट कर रही है । उसके नीचे गंगा और यमुना के जन्म का महोत्सव - गुप्तकालीन परिभाषा में 'जातिमह' - अंकित है । इसमें छः स्त्रियाँ नृत्य और गीत का प्रदर्शन कर रही हैं । बीच में एक स्त्री नृत्य कर रही है और शेष सप्ततंत्री वीणा, वंशी, मृदंग और कांस्यताल बजा रही हैं। विशिष्ट जन्म उत्सव के अंकन में संगीत का इस प्रकार प्रदर्शन भारतीय कला की प्राचीन परिपाटी थीं । भारहुत में भी बुद्धजन्म के उपलक्ष में देवों का 'सम्मद' या हर्ष-प्रदर्शन अंकित किया गया है ।
संगीतात्मक दृश्य के नीचे बाई ओर की वारिधारा में मकर वाहन पर खड़ी हुई गंगा की मूर्ति है, और दाहिनी जल धारा में पूर्ण घट लिए हुए कच्छप वाहन पर यमुना खड़ी हैं। दोनों पूर्वाभिमुख हैं । स्त्री-रूप में गंगा और यमुना की कल्पना सब से पहले गुप्त शिल्पकला में ही पाई जाती है | महाकवि कालिदास ने अपने युग की इस कलात्मक विशेषता का निश्चित शब्दों में उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि शिव की. वरयात्रा में गंगा और यमुना मूर्त रूप धारण करके हाथ में बँवर लिए हुए उनकी सेवा करने लगीं
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मूर्ते च गंगायमुने तदानीं सचामरे देवमसेविषाताम् ।
( कुमारसंभव ७ ४२ )
कवि के उल्लेख का समर्थन गुप्तकालीन मंदिरों के द्वारस्तंभों पर चित्रित गंगा और यमुना की मूर्तियों से होता है, जिसका एक विशिष्ट उदाहरण देवगढ़ के दशावतार मंदिर में है । गंगा और यमुना के मूर्त रूप के बाद प्रयागराज में उनके संगम का दृश्य अंकित है। गुप्तकाल में प्रयाग साम्राज्य की शक्ति का प्रधान केंद्र था । संगम पर ही समुद्रगुप्त ने साम्राज्य-संस्थापन रूप अपने पराक्रम की प्रशस्ति को उत्कीर्ण कराया । महाकवि कालिदास ने अपने युग की इन उदात्त भावनाओं को संगम को भव्य प्रशस्ति ( रघुवंश १३/५४१५७ ) लिखकर अमर किया है।
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