SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका यह निवास स्थान दीर्घ और विस्तृत है। . विष्णु के चरणों में जितनी शक्ति होती है, उतना ही वह दीर्घ भू-मापन करता है। प्रजाएँ प्रत्येक क्षेत्र में अबाधित गति चाहती हैं। जिस क्षेत्र में उन्हें बाधाएं मिलती हैं, वहीं विष्णु की गति कुंठित हो जाती है। ४-'विष्णु के विक्रम के जो तीन पैर हैं वे शहद से भरे हुए हैं। उस मधु का रस अक्षय्य है। विष्णु अकेला ही सब भुवनों को धारण करता है। तीन पृथिवियों और तीन आकाशों को वही रोके हुए है।' हम देखते हैं कि युग-युगांतर से प्रजाओं के द्वारा रस का आस्वादन होने पर भी वह रस उनके लिये क्षीण नहीं होता । अपनी संस्कृति के साथ जिस वस्तु का संबंध जुड़ जाता है उसी के अनुभव करने, सुनने और सोचने में प्रजाओं को रस मिलता है। रामायण और महाभारत, कालिदास और तुलसी-इनको कविता में रस की जो अक्षय्य निधि है वह कभी समाप्त होने का नाम नहीं लेती। अपना ज्ञान, अपनी कला, अपने साहित्य का अक्षीयमाण रस बराबर मुक्त होने पर भी कभी नहीं छोजता। प्रत्येक युग को जनता नूतन दृष्टिकोण से उस रस की पहचान करती है। सत्त्व, रज और तम भेद से जीवन तीन प्रकार का है। अवम, मध्य और उत्तम भेद से राष्ट्र भी तीन प्रकार का होता है [पृथिवीसूक्त, मंत्र ८] इन्हीं से संबंधित तीन पृथिवियाँ और तीन आकाश हैं जिन्हें विष्णु धारण करता है। ५- विष्णु के उस प्रिय स्थान से हम जुड़े जहाँ देवत्व के प्रेमी नर आनंदित होते हैं। विष्णु के उस परमोच्च स्थान में शहद का कुँआ है। वह उरुक्रम का बंधु है।' विष्णु के तीसरे चरण में मध्व उत्स' या शहद का स्रोत कहा गया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक सब से ऊँचा पद या स्थिति है जहाँ सब प्रकार के आनंद का स्रोत है। विस्तृत विक्रम के द्वारा हम उस शहद के कुएँ के पास पहुँचते हैं। ६-प्रसन्नता से हम उन स्थानों में चलकर रहें जहाँ विक्रम के समय अनेक प्रकार की शीघ्रगामिनी रश्मियाँ (तीव्र प्रेरणाएँ) प्रजाओं में व्याप्त रहती हैं। दीर्घ गतिवाले विष्णु का परमपद बहुत ही मनोहर है। . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy