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नांगरांप्रचारिणी पत्रिका पयोप्त प्रकाश पड़ता है। अब यहां पर हम उन प्रदेशों तथा उपहारों का वर्णन करेंगे।
वाटधान-(सभा० ४५।२४) वाट का शब्दार्थ होता है-बरगद की लकड़ी से बनी हुई वस्तु या बरगद का पेड़ या उसकी लकड़ी। आदिपव (६१, ५८ ) में वाटधान भौगोलिक अर्थ में और वंशस्थापक व्यक्ति-विशेष के लिये प्रयुक्त हुआ है। उद्योगपर्व (५।२४ ) में वे कौरवों के सहायक कहे गए हैं। सभापर्व (२९७ ) में मध्यमिका (आधु० चित्तौड़ के पास नगरी' गाँव ) उनका देश कहा गया है। एक दूसरी जगह (४५।२४) बाटधान ब्राह्मण पशुपालक कहे गए हैं। इन वाटधानों के सैकड़ों छोटे समूह (शतसघशः ) युधिष्ठिर के दरबार में उपायन लेकर पहुंचे। यह कहना अनुचित न होगा सिकदर की भारतवर्ष की चढ़ाई में (एरियन ६७ ) रावी पर एक प्राह्मणों की नगरी मिली जिसकी पहचान कनिंघम ने मुल्तान के पास अटारी से की है (कनिघम का भूगोल )। अपोलोडोरस (१७५३) के कथनानुसार ब्राह्मणों की दूसरी नगरी जो सिंध में थी, उसका नाम हर्मतेलिया था। कनिंघम के अनुसार इस नगर का मध्यकालीन नाम ब्राह्मणाबाद था, जो हैदराबाद से ४५ मोल उत्तरपूर्व पर स्थित था। पार्जिटर के अनुसार (माके० पु० ५७.३८) वाटधान सतलज के पूर्व फीरोजपुर के दक्षिण में बसे हुए थे। संभवतः वाटधान ब्राह्मणों के कई गणतत्र थे जिनकी स्थिति पंजाब, निचले सिध तथा दक्षिण राजपूताने में थी। .. कंबोज-(सभा० २४।२२, ४५।१९-२०, ४७।३-४)। कंबोज का उल्लेख हिंदू, बौद्ध तथा जैन साहित्यों में बहुत पाया है। वैदिक साहित्य में कांबोज, औपमन्यव, मद्रगार का एक शिष्य था (वैदिक इंडेक्स १, पृ०८४-८५)। यह सिद्ध होता है कि मद्रों या उत्तर मद्रों के साथ कांबोजों का कुछ सबंध था
और शायद कांबोज और मद्र दोनों में ईरानी तथा भारतीय संस्कृति का सम्मिश्रण था। यास्क (२,१।३-४) का कहना है कि शवति धातु का जाने के अर्थ में, व्यवहार केवल कंबोजों में होता है। शवति ईरानी भाषा का एक शब्द है और उसका प्रयोग संस्कृत में नहीं होता। इस शब्द की बुनियाद पर प्रियसन का कहना है कि उत्तर-पश्चिम भारत की सीमा पर
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