SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका अपोलोडोरस के कथनानुसार बख्न-विजय में चार फिर दर जातियों का हाथ था। वे थीं असियानो, पसियानी, तुखारी तथा सकरौली (खाबो ११।५,११ )। बोगस मूल (४१) के अनुसार असियानी, रसरौची लोगों ने बाल्हीक जीता। चाँग-कियान के यू-शी को खोज हम त्रोगस के असियानी या सरोकी में कर सकते हैं। यह स्पष्ट है कि सरौकी से इसका संबंध नहीं हो सकता, इसलिये असियानी ही यू-शी का प्रतीक है (टान, वही, पृ० २८४)। असियानी अस्सियाई का विशेषणात्मक रूप है, इसलिये अस्सियाई ही यू-शी हैं। इस पहचान को लेकर विद्वानों में बहुत बहस हुई। १९१८-१९ में यह विश्वास किया जाता था कि मध्य एशिया से मिली शक-पुस्तकों का नाम अर्शी था। परंतु बहुत से लोग इसके अस्तित्व में सदेह करते हैं । टार्न के अनुसार इसमें सदेह नहीं कि प्रीक आर्ची जाति के लोगों को अच्छी तरह जानते थे और प्लिनी (६,१६४८) में इसका वर्णन है। प्लिनी ने बार्शी लोगों को उन जातियों में घुसेड़ दिया है जिनका उसे पता न था।। अब हमें अर्जुनदिग्विजय के परम ऋषिकों (सभा० २४।२५) की खोज करनी है। बस्त्रिया की लड़ाई में अपोलोडोरस एक शक कबीले का वर्णन करता है जिसका नाम पसियानी था। जिस प्रकार असियानी असियाई का विशेषणात्मक रूप है, उसी प्रकार पसियानी पसियाई या पसी का रूप होना चाहिए। इसमें शक नहीं कि इस नाम की तुलना हम ग्रीक इतिहासवेत्ताओं के पर्सिआई से कर सकते हैं। टान के अनुसार (पृ० २९३) पर्सि प्राई पारसी जाति थी, लेकिन इस पक्ष में उसने कोई युक्तिसंगत प्रमाण नहीं दिया। यू-शी प्रश्न के बारे में अब हमें महाभारत से जो कुछ मिलता है उसका विवेचन करना चाहिए। श्रादिपव' (६१।३०) में ऋषिक राजाओं की उत्पत्ति चंद्र तथा दिति से मानो गई है। इस संबध में यह जानने योग्य बात है कि प्रो० शातियर ( २. डी० एम० जो०, १९१७,७७ ) के अनुसार यू-शी शब्द चंद्र जाति का द्योतक है। यह कहना कठिन है कि ऋषिकों तथा चद्र देवता में कौनसा सबध था। उद्योगपर्व (४।१५) में फिर ऋषिकों से भेट होती है जहाँ इनका वर्णन शक, पह्नव, दरद, कंबोज तथा पश्चिम अनूपकों के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy