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________________ १४५ उपायनपर्व का एक अध्ययन लिए हुए सुगंधित शमी, पीलु और करील के जंगलों में होता हुआ अपने देश में पहुँचूँगा ?' एक दूसरे लोकगीत में वह वाहीक कहता है-'अरे वह सुअवसर कब आवेगा जब मैं शाकला में फिर से वाहीक गाने गाऊँगा, तथा वह गोमांस, गौड़ी-सुरा खा-पीकर सुलंकृता स्त्रियों के साथ आनंद कर सकूँगा ?' ( कर्णपर्व, श्लो० २०५१)। एक दूसरी जगह कर्ण ने वाहीकों को गधियों और घोड़ियों का दूध पीनेवाला कहा है (२०५९)। पंजाबियों पर इस तरह प्रहार होते देखकर एक प्रश्न उठता है कि मध्यदेश के ब्राह्मण पंजाब से इतना नाराज क्यों थे ? यह तो विदित ही है कि वैदिक धर्म की नींव पंजाब में पड़ी। पृथिवीसूक्त में पंजाब तथा हिमालय का वर्णन है। भीष्मपर्व (अ०९) में चक्रवर्तियों की श्रेणी में पंजाब के शिबि औशीनर की भी गणना की गई है। फिर क्या कारण था कि महाभारतकार की दृष्टि में पंजाबी इतने नीचे गिर गए थे? कारण स्पष्ट है। पंजाब में जिस संस्कृति का जन्म तथा संस्कार हुआ वही सस्कृति धीरे धीरे पूर्व की ओर हटती हुई मध्यदेश तथा राजपूताने में आकर स्थित हो गई। यहीं पर ब्राह्मण-सस्कृति अपने प्राचीन विश्वास तथा दर्शन को लेकर जम गई। कालांतर में यही देश ब्राह्मण का स्वर्ग हो गया। ब्राह्मणों का यह विश्वास दिन प्रति दिन बढ़ता ही गया कि पजाब में जो नई नई जातियों पैर जमाती गई उनकी असस्कृत धम भावनाओं के संघर्ष से ब्राह्मण-धम को एक गहरा खतरा था। नवीन आगंतुको के तथा भारत में रहनेवाली आदिम जातियों के विश्वास ब्राह्मणधर्म के अनुकूल न होने से ब्राह्मण इनको होवे के रूप में देखने लगे। एक उदाहरण लीजिए-सरस्वती विनशन के पास इसलिये नष्ट हो गई कि वह निषादों का स'सर्ग सहन नहीं कर सकती थी ( अरण्य १३०, ३-४)। इससे बढ़कर बेहूदा बात और कौन हो सकती है ? लेकिन इसमें हम उस विश्वास की जड़ बंधते देखते हैं जिसके द्वारा ब्राह्मणवर्ग धीरे धीरे अपने अनुयायियों को म्लेच्छों के ससर्ग से अलग रखने की चेष्टा करते हुए देख पड़ते हैं। अरण्य पर्व में जहाँ तीर्थों का वर्णन आया है वहाँ भी हम देखते हैं कि हमारा ध्यान कुरुक्षेत्र, गंगाद्वार, मारवाड़, काठियावाड़ तथा मध्यदेश के छोटे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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