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मानरी प्रचारिणी पत्रिका - सोमेवाले का नाम कलि है, बैंगड़ाई लेनेवाला द्वापर है, ठकर खड़ा होनेवाला त्रेता है और चलमेवाला कृतयुगी होता है। अथववेद के पृथिवीसूक्त में 'उदोराणा सतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्त:' मंत्र में इन्हीं चार अवस्थाओं का निरूपण है जिसमें कृत के लिये प्रक्रम या पराक्रम की अवस्था कहा गया है। विशेष पराक्रम या विक्रम के द्वारा आदर्श सतयुग की स्थापना कृत है। मालवों ने सत्य ही शक-विजय के बाद अपने गण की स्थिति को कृतयुग की स्थापना समझा और इसी कारण संवत् को गणमा का कृत नाम रखा गया। कृत संवत् का यही अर्थ घटनाओं से लमंजस जाम. पड़ता है। गौतमीपुत्र शातकर्णि के नासिकवाले शिलालेख में कृत युग के अनुकूल आदर्शों की पुन: स्थापना का उल्लेख आया है। 'सब ओर प्रजात्रों को अभय की जलांजलि देकर निर्भय बनाया गया। चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था को न मानमेवाले शकपल्हव यवनों को हराकर चातुर्वर्ण्य को सकर-रहित बनाया गया। धर्म से कर प्रहण करके प्रजाहित में उसका विनियोग किया गया। द्विजों का विवर्धन और वेदावि श्रागम-शाखों की रक्षा की गई।' वासिष्ठीपुत्र ने इसी लेस में अपने पिता के प्रादशी का वर्णन करते हुए उन्हें 'धर्मसेतु' कहा है। हमारे साहित्य में कृतयुग की स्थापना के यही आदर्श माने जाते रहे हैं। इस तरह विक्रम सवत की स्थापना के मूल में यह विचार मालूम होता है कि उसके प्रारभ से लोक में कृतयुग की फिर स्थापना हुई। ___श्री जायसवाल जी ने पूर्वापर का विचार करने के बाद श्री गौतमीपुत्र शातकर्णि की ही विक्रमादित्य माना था। इस संबंध में जो ऐतिहासिक स गति है उसका ऊपर निदेश कर दिया गया है। पुरातत्व की उपलब्ध सामग्री के आधार पर जो ऐतिहासिक चित्र मिर्मित हो सकता है वह यही है। विक्रमादित्य के सब'ध में जैन अनुश्रुसि विशेष रूप से उपलब्ध है। उसका वर्णन श्री राजबली पांडेय जी ने अपने लेख में किया है। इस अमुश्रति के आधार पर शकों के पश्चिम भारत में प्राक्रमण और किसी प्रतापी मरेश द्वारा उनकी पराजय की जो सूचना मिलती है उसका भी उपर्युक्त ऐतिहासिक संगति से मेल बैठ जाता है। हाँ, जैन अनुश्रुति की यह विशेषता है कि उसमें इस सम्राट की संज्ञा विक्रमादित्य कही गई है।
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