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________________ विक्रमादित्य १०५ श्रा-भवतु तव विडोजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु त्वमपि विततयज्ञो वजिणं भावयेथाः । गणशतपरिवते रेवमन्योन्यकृत्यै - नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः ॥ ( भरतवाक्य ) उपर्युक्त अवतरणों में मोटे टाइपों में छपे पदों से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि जिस विक्रमादित्य का यहाँ निदेश है उनका व्यक्तिवाचक नाम विक्रमादित्य और उपाधि साहसांक है। भरतवाक्य का 'गण' शब्द राजनैतिक अर्थ में 'गण-राष्ट्र' का द्योतक है। 'शत' संख्या गोल और अतिरंजित है और 'गणशत' का अर्थ कई गणों का गण-संघ है। 'गण' शब्द के इस अर्थ की संगति अवतरण अ० के मोटे टाइपों में छपे पद से बैठती है। विक्रमादित्य के साथ कोई राजतांत्रिक उपाधि नहीं लगी हुई है। यदि यह अवतरण छंदोबद्ध होता तो कहा जा सकता था कि छंद की आवश्यकता-वश उपाधियों का प्रयोग नहीं किया गया है, किंतु गद्य में इनका अभाव कुछ विशेष अर्थ रखता है। निश्चय ही. विक्रमादित्य सम्राट या राजा नहीं थे, अपितु गणमुख्य थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार गणराष्ट्र कई प्रकार के थे-कुछ वातोशस्त्रोपजीवी, कुछ आयुधजीवी और कुछ राजशब्दोपजीवी। ऐसा जान पड़ता है कि मालवगण वार्ताशस्नोपजीवी था। इसी लिये विक्रमादित्य के साथ राजा या अन्य किसी राजनैतिक उपाधि का व्यवहार नहीं हुआ है। इन अवतरणों के सहारे यही निष्कर्ष निकलता है कि विक्रमादित्य मालवगणमुख्य थे। उन्होंने शकों को उनके प्रथम बढ़ाव में पराजित करके इस क्रांतिकारी घटना के उपलक्ष में मालवगण-स्थिति नामक संवत् का प्रवर्तन किया जो आगे चलकर विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विक्रमादित्य स्वयं काव्यमर्मज्ञ तथा कालिदास आदि कवियों और कलाकारों के प्राश्रयदाता थे। अब प्रश्न यह हो सकता है कि मालवगण-स्थिति अथवा मालव सवत् का विक्रम संवत् नाम कैसे पड़ा ? इसका समाधान यह है कि सवत् का नाम प्रारंभ में गणपरक होना स्वाभाविक था, क्योंकि लोकतांत्रिक राष्ट्र में गण की प्रधानता होती है, व्यक्ति की नहीं । पाँचवीं शताब्दि ई० प० के पूर्वार्द्ध में चंद्रगुप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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