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________________ १०० नागरीप्रचारिणी पत्रिका बौद्ध धर्म के इतिहास में भी अशोक के बाद उसका स्थान है। ऐसे प्रतापी राजा का सवत् चलाना बिल्कुल स्वाभाविक था। पर तु यह डॉ० फ्लीट के अतिरिक्त प्रायः अन्य किसी विद्वान् को मान्य नहीं है। प्रथम तो अभी कनिष्क का समय ही अनिश्चित है। दूसरे एक विदेशी राजा के द्वारा देश के एक कोने में प्रवर्तित संवत् देशव्यापी नहीं हो सकता था। तीसरे यह बात प्रायः सिद्ध है कि कुषाणों ने काश्मीर तथा पंजाब में जिस सवत् का व्यवहार किया था वह पूर्व प्रचलित सप्तर्षि संवत् था जिसमें सहस्र तथा शत के अंक लुप्त थे। यदि यह बात अमान्य भी समझी जाय तो भी कुषाण सवत् वशगत था और कुषाणों के बाद पश्चिमोत्तर भारत में इसका प्रचार नहीं मिलता। (३) श्री वेलडै गोपाल ऐयर ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत का तिथिक्रम' (क्रॉनोलॉजी आफ् ऐशेंट इंडिया), पृष्ठ १७५... में इस मत का प्रतिपादन किया है कि विक्रम संवत् का प्रवर्तक सुराष्ट्र का महाक्षत्रप चष्टन था। "विक्रम संवत् वास्तव में मालव संवत् है। मंदसोर प्रस्तर-लेख में स्पष्ट बतलाया गया है कि मालव जाति के संघटन-काल से इसका प्रचलन हुआ (मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये-फ्लोट, गुप्त उत्कीर्ण लेख सं० १८)। कुषाणों द्वारा इस सवत् का प्रवर्तन नहीं हो सकता था। एक तो कनिष्क का समय विक्रमकालीन नहीं, दूसरे यह बात सिद्ध नहीं कि उसका राज्य कभी मथुरा और बनारस के आगे भी फैला था। क्षत्रपों के अतिरिक्त किसी अन्य दोघंजीपी गजवंश का पता नहीं जिसका मालव प्रांत पर आधिपत्य हो और जिसको सवत का प्रवर्तक माना जा सके। जब हम इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए रुद्रदामन के गिरनार लेख में पढ़ते हैं कि 'सब वर्णों ने अपनी रक्षा के लिये उसको अपना अधिपति चुना था' (सर्ववर्णर भिगम्य पतित्वे वृतेन -एपिमाफिया इंडिका, जिल्द ८, पृ० ४७) तब यह बात हम स्वीकार करते हैं कि मालवा और गुजरात की सब जातियों ने उसको अपना राजा निर्वाचित किया था जिस तरह कि इसके पूर्व उन्होंने रुद्रदामन के पिता जयदामन और उसके पितामह चष्टन को चुना था। प्राचीन ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि 'पश्चिम के सभी राजाओं का अभिषेक स्वाराज्य के लिये होता है और उनकी उपाधि स्वराट् होती है। इन स्वतंत्र जातियों ने एकता में शक्ति का अनुभव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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