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________________ भ० वीर को नमस्कार कर लो, वह तो सर्वज्ञ हैं, यहां से की हुई बन्दना को भी वह अपने ज्ञान से जान लोगे" । सुदर्शन ने कहा मरना तो एक दिन है ही, फिर इसका भय क्या ? सुदर्शन राजगृह से थोड़ी दूर ही बाहर निकला था कि अर्जुन माली भूखे शेर के समान झपटा और अपना मोटा मुद्गर मारने कोउठाया, परन्तु वीर भगवान की भक्ति फलसे बनदेवने उसके हाथ कील दिये। अर्जुन बड़ा शक्तिशाली था उसने बहुत यत्न किये, परन्तु कुछ वश चलता न देखकर वह सुदर्शन के चरणों में गिर पड़ा। सुदर्शन ने कहा, "यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे साथ वीर-वन्दना के लिये चलो" । अर्जुन बोला. "वहां तो श्रोणिक जैसे सम्राट, आनन्द जैसे सेठ और तुम्हारे जैसे भक्त जाते हैं, मुझ जैसे पापी और नीच जाति को कौन घुसने देगा” ? सुदर्शन ने कहा, “यही तो भ० महावीर की विशेषता है कि उनके समवरशण के दरवाजे पापी से भी पापी और नीच से भी नीच चाण्डाल तक के लिये खुले हैं. तुम्हारे लिये वहां वही स्थान है जो महाराजा श्रेणिक के लिये" । यह सुन कर अर्जुन भी सुदर्शन के साथ चल दिया । समवशरण के अहिंसामयी वातावरण और विरोधी पशुओं तक को आपस में प्रेम करते देखकर अर्जुन भूल गया कि मैं पापी हूँ। उसने विनयपूर्वक भ० महावीर को नमस्कार किया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु हो गया । श्रेणिक आश्चर्य में पड़ गया कि जिस दुष्ट अजुन की लूटमार व कत्लगिरि के हजारों वाकात से सारा देश परेशान था, जिसके कारण उसको गिरफ्तार करने के लिये उसने हजारों रुपये का इनाम निकाल रक्खा था फिर भी किसी में इतना हौसला न था कि उसे पकड़ सकें, वे वीर-शिक्षा से इतना प्रभावित हुआ कि सारे दोषों को छोड़ कर एकदम जैनमुनि होगया' । १. बिस्तार के लिये भ० महावीर का आदर्श जीवन पृ० ४२-४१८ । [ ३८६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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