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________________ श्रात्मा से भिन्न है । जब यह शरीर ही अपना नहीं और जीव निकल जाने पर यहीं पड़ा रह जाता है, तो स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि जो प्रत्यक्ष में अपनी आत्मा से भिन्न हैं, अपनी कैसे हो सकती हैं ? संसारी पदार्थों की अधिक मोह-ममता के कारण ही अज्ञानी जीव निज-पर का भेद न जान कर अपने से भिन्न पदार्थों को अपनी मान बैठता है। इस विश्वास का कि पर-द्रव्य मेरे हैं, मैं उनका बुरा या भला कर सकता हूं, यह अर्थ है कि जगत में जो अनन्त पर-द्रव्य हैं, उनको पराधीन माना । पर द्रव्य मेरा कुछ कर सकता है, इसका मतलब यह है कि अपने स्वभाव को पराधीन माना । इस मान्यता से जगत के अनन्त पदार्थों और अपने अनन्त स्वभावों की स्वा. धीनता की हत्या हुई। इसलिये इसमें अनन्त हिंसा का पाप है । जगत के पदार्थों को स्वाधीन की जगह पराधीन मानना तथा जो अपना स्वरूप नहीं, उसको अपना स्वरूप मानना अनन्त जिसने अनंत पर-पदार्थ को अपना माना उसने अनन्त चोरी का पाप किया । “एक द्रव्य दूसरे का कुछ कर सकता है" ऐसा मानने वाले ने अनन्त द्रव्यों के साथ एकता रूप व्यभिचार करके अनन्त मैथुन सेवन का महापाप किया है । जो अपना न होने पर भी जगत के पर पदार्थों को अपना मानता है, वह अनन्त परिग्रहों का महापाप करता है। इसलिये पर पदार्थों को अपना जानना और यह विश्वास करना कि मैं पर का भला-बुरा कर सकता हूँ या वह मेरा भला-बुरा कर सकते हैं, जगत का सब से बड़ा महापाप और मिथ्यात्व है। (ii) हम सब खुदा के बेटे हैं । Sahia. (iii) 'Souls are equal'. Ante Nicene Christian Library, XII. 362. [३४७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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