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________________ तीन लोल के नाथ श्री तीर्थंकर भगवान कहते हैं “मेरा और तेरा आत्मा एक ही जाति का है । मेसे स्वभाव और गुण वैसे ही हैं जैसे तेरे स्वभाव और गुण। अर्हन्त अथवा केवल ज्ञान दशा प्रगट हुई वह कहीं बाहर से नहीं आगई । जिस प्रकार मार के छोटे से अंडे में साढ़े तीन हाथ का मोर होने का स्वभाव भरा है उसी प्रकार तेरी आत्मा में परमात्म पद प्रगट करने का शक्ति है। जिस तरह अंडे में बड़े-बड़े जहरीले सर्प निगल जाने की शक्ति है उसी तरह तेरी आत्मा में मिथ्यात्व रूपी विष का दूर करके अर्हन्त पद अथवा केवल ज्ञान प्रगट करने की शक्ति है । परन्तु जैसे यह शङ्का करके कि छोटे से अंडे में इतना लम्बा मोर कैसे हो सकता है उसे हिलाये-जुलाये तो उसका रस सूख जाता है और उससे मोर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही आत्मा के स्वभाव पर विश्वास न करने तथा यह शंका करने से कि मेरा यह संसारी आत्मा सर्वज्ञ भगवान के समान कैसे हो सकता है, तो ऐसी मिथ्यात्व रूपी शङ्का करने से सम्यग्दर्शन नहीं होता। ___ सम्यग्दर्शन अनुपम सुखों का भण्डार है, सर्व कल्याण का बीज है, पाप रूपी वृक्ष को काटने के लिये कुल्हाड़ी के तथा संसार रूपी सागर से पार उतरने के लिये जहाज के समान है, मिथ्यात्व रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये सूर्य और कर्म रूपी ईन्धन को भस्म करने के लिये अग्नि है। जो क्रोध, मान, लोभ, इच्छा, १ (i) "Because as he is. so are we in this world' John IV. 17. (ii) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जन तिष्ठति । गीता अ० १८, श्लोक ६१) (iii) सर्व विश्वात्मकं विष्णुम्' -नारद पुराण प्रथम खण्ड स० ३२ । (!v) 'आसीनः सर्वभूतेषु' -बाराह पुराण अ० ६४ । (vi) 'ईश्वरः सर्वभूतस्थः' पाज्ञवल्क्य स्मृति श्लोक १०८ | ३४८ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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