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________________ यदि यह दोनों वस्तु प्राप्त भी हो गई तो नारी के कलहारी और संतान के आज्ञाकारी न होने का दुःख । कभी रोगी शरीर होने की परिषय, तो कभी इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट-संयोग के दुःख । बड़े से बड़ा सम्राट, प्रधान मन्त्री श्रादि जिसको हम प्रत्यक्ष में सुखी समझते हैं, शत्रुओं के भय तथा रोग-शोक आदि महा दुखों से पीड़ित है। ____स्वर्ग को तो सुखों की खान बताया जाता है। यह जीव स्वर्ग में भी अनेक बार गया, परन्तु जितनी इन्द्रियों की पूर्ति होती गई उतनी ही अधिक इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण वहां भी यह व्याकुल रहा, दूसरे देवों की अपने से अधिक शक्ति और ऋद्धि को देख कर ईषो भाव से कुढ़ता रहा । इस प्रकार यह संसारी जीव अपनी आत्मा के स्वरूप को भूल कर देव. मनुष्य, पशु, नरक, चारों गतियों की चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुये कषायों को अपनी आत्मा का स्वभाव जान कर उनमें आनन्द मानता रहा। स्वर्ग में गया तो अपने को देव, पशु, गति में अपने को पशु तथा नरक में अपने को नारकीय समझता रहा । मनुष्य गति में भी राजा, सेठ, वकील, डाक्टर, जज, इञ्जीनीयर जो भी पदवी पाता रहा उसी को अपना स्वरूप मानता रहा । क्षण भर भी यह विचार नहीं किया कि मैं कौन हूँ ? मेरा असली स्वरूप क्या है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? यह संसार क्या है ? मैं इसमें क्यों भ्रमण कर रहा हूं ? इस आवागमन के चक्कर से मुक्त होने का उपाय क्या हो सकता है ? देव हो या नारकीय, मनुष्य हो या पशु, राजा हो या रङ्क, हाथी हो या कीड़ी, आत्मा हर जीव में एक समान है' । शरीर १. (i) कोई भी पशु-पक्षी ऐसा नहीं जो तुम्हारे (मनुष्य) के समान न हो। Koran. P. VI. ३४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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