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________________ विषधर सर्प :: अमृतधर देव श्री वर्द्धमान महावीर एक भयानक जङ्गल की ओर सिंह के समान निर्भय होकर विहार कर रहे थे, कि कुछ लोगों ने कहा"यहां से थोड़ी दूर झाड़ियों में चण्डकौशिक नाम का एक बहुत भयानक नागराज रहता है। उसकी एक ही फुकार से दूर दूर के जीव मर जाते हैं. इस लिये इस ओर न जाइये"। वे न रुके और चण्डकौशिक के स्थान पर ही ध्यान लगा दिया। चण्डकौशिक फुकार मारता हुआ बाहर वाया तो जहाँ दूर-दूर के वृक्ष तक उसकी फुङ्कार से सूख गए वीर स्वामी पर कुछ प्रभाव होता न देख कर चण्डकौशिक आश्चर्य करने लगा और अपनी कमजोरी पर क्रोध खाकर उनकी तरफ फना करके सम्पूर्ण शक्ति से फुङ्कार मारी, परन्तु वीर स्वामी बदस्तूर ध्यान में मग्न खड़े रहे। चण्डकौशिक अपनी जबरदस्त हार को अनुभव करके क्रोध से तिलमिला उठा और पूरे जोर से वीर स्वामी के पैर में डङ्क मारा । वीर स्वामी के चरणों से दूध जैसी सफेद धारा निकली, परन्तु वह ध्यान में लीन खड़े रहे। चण्डकौशिक हैरान था कि मुझ से भी बलवान् आज मेरी शक्ति का इम्तिहान करने मेरे ही स्थान पर कौन आया है ? वह वीर स्वामी के चेहरे की ओर देखने लगा, उनकी शान्त मुद्रा और वीतरागता का चण्डकौशिक पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसके हृदय में एक प्रकार की हल-चल सी मच गई। वह सोच में पड़ गया कि इन्होंने मेरा क्या बिगाड़ किया, जो ऐसे महातपस्वी को भी कष्ट दिया। मैंने अपने एक जीवन में लाखों नहीं, करोड़ों के जीवन नष्ट कर दिये । मैं बड़ा अपराधी हूँ, दुष्ट हूं, पापी हूं । ऐसा विचार करते करते उसका हृदय कांप उठा और श्रद्धा से अपना मस्तक वीर स्वामी के चरणों में टेकता हुआ बोला-"प्रभो ! क्षमा कीजिये, मैंने आपको ३२२ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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