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________________ नहीं है । सर्प तो एक जन्म में दुःख देता है, लेकिन मिथ्यात्व जन्म-जन्मान्तर तक दुःख देता है । मिथ्यात्व के प्रभाव से जीव नरक तक में भी दुःख अनुभव नहीं करता, किन्तु दूसरे अधिक ऋद्धियों वाले देवों की उत्तम विभूतियों को देख कर ईर्ष्या भाव करने, महा सुखों के देनेवाली देवाङ्गनाओं का वियोग होने तथा आयु के समाप्त होने से छः महीने पहले माला मुरझा जाने से मिथ्यादृष्टि स्वर्ग में भी दुःख उठाता है । मृत्यु के छः महीने पहले मेरी भी माला मुरझा गई तो इस भय से कि मरने के बाद न मालूम कहाँ जन्म होगा? ये स्वर्ग के सुख प्राप्त होंगे या नहीं ? अत्यन्त शोक और रुदन किया, जिसका फल यह हुआ कि स्वयं स्वर्ग की आयु समाप्त होते ही मैं निगोद में आ पड़ा । अनन्तानन्त वर्षों तक वहां के दुःख उठा कर वर्षों तक वहाँ के दुःख भोगे, फिर एकइन्द्रीय वनास्पति काय प्राप्त हुई । कई बार मैं गर्भ में आया और वह गर्म गिर गये । इसी प्रकार ६० लाख बार जन्ममरण के दुःख सहन करके शुभ कर्म से राजगिरी नाम की नगरी में शांडिली नामक ब्राह्मण की स्त्री पारासिरी के स्थावर नाम का पुत्र हुआ । संसारी पदार्थों की अधिक इच्छा न रखने और मन्द कषाय होने के कारण आयु के समाप्त होने पर महीन्द्र नाम के चौथे स्वर्ग में देव हुआ । श्रावक तथा जैन-मुनि जिस प्रकार काठ की संगति से लोहा भी तिर जाता है, उसी प्रकार धर्मात्माओं की संगति से पापी तक का भी कल्याण होजाता १.२. चौबीसी पुराण (जिनवाणी का० कलकत्ता) पृ० २४३ । ३-४ विस्तार के लिये खंड २ में भ० महावीर का धर्म उपदेश । ५. श्री शकलकीर्ति जी : वर्द्धमान पुराण (हस्तलिखित) । ६-७. श्री महावीर पराण (कलकत्ता) पृ० १६ । २७४ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035297
Book TitleVardhaman Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambardas Jain
PublisherDigambardas Jain
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size134 MB
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