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________________ वैद्य-सार १०३ गुल्मादौ लवण पंचक योगः संख्यातं लवणं सुवह्नभिमजौ क्षारद्वयं टंकणं । जीरं दीप्ययुगं च रामठविडंग चैव जैपालकं ॥ शोषं वै लशुनं निकुंभमिलितं अर्काम्भसा मर्दयेत् । तत्कल्कं मरिचप्रमाणवाटिकां चाज्येन संभत्तयेत् ॥१॥ संपूर्ण गदहः प्रयोगशुभगः रोगानुपानेन वै । गुल्मं पंचकमूलरोगमुदरं श्वासं च कास-क्षयम् ॥ वाताशीति महोदरं च क्षपयेत् शूलं च रकस्रवम् । पतद्रोगविनाशनो हितकरः श्री पूज्यपादादितः ॥२॥ टीका -- समुद्र नमक, सेंधानमक, काला नमक, विटनमक, साँभर नमक, चितावर, सोंठ, सज्जीखार, जत्राखार भूना हुआ सुहागा, सफेद जीरा, अजमोदा, अजवायन, भूनी हुई हींग, वायविडंग, शुद्ध जमालगोटा के बीज, लहसुन की मींगो (घी में सिंकी हुई) काली मिर्च, पीपल और जमालगोटे को जड़ इन सबको समान भाग लेकर कूट पीस कपड़छन कर अकौवा के दूध से मर्दन करके काली मिर्च के बराबर गोली बनावे और रोगको प्रस्थानुसार योग्य मात्रा से गाय के घी के साथ देवे तो यह शुभ प्रयोग सम्पूर्ण रोगों को नाश करनेवाला है तथा प्रत्येक रोग के पृथक् पृथक् अनुपान से पाँचों प्रकार के गुल्म, उदर रोग, श्वास- कास, क्षय अस्सी प्रकार के वातरोग, जलोदर, शूल एवं अधोरक्तनाव इन सब रोगों को नाश करनेवाला यह पूज्यपाद स्वामी का कक्ष हुआ लवणपंचकयोग सर्वोत्तम है। १०४. - सर्वरोगे रसराजरसः - ६७ रसेन्द्र सिन्दूर - मथाभ्रकान्तं गंधं रवेः भस्म व रौप्यभस्म । सयाज्य सर्वं त्रिफलाकषायैः विमर्ध पश्चाद्विनियोजनीयः ॥ १ ॥ कटुत्त्रयेणापि फलत्त्रयेण युक्तो रसेन्द्रः सकलामयन्नः । रसोत्तमोऽयं रसराज एषः श्रीपूज्यपादेन सुभाषितः स्यात् ॥२॥ टीका - शुद्ध पारा, रससिन्दूर, प्रभ्रकभस्म, कांतलौह भस्म, शुद्ध गंधक, तामे की भस्म तथा चांदी की भस्म इन सबको बराबर बराबर लेकर खरल में डालकर त्रिफला के काढ़े में घोंटे और उसको त्रिकटु त्रिफला के काढ़े से ही सेवन करे तो अनेक रोग शांत हों। यह रसों में श्रेष्ठ रस पूज्यपाद स्वामी ने कहा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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