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वैद्य-सर
टोका - सज्जीखार, जवाखार टंकणचार, समुद्र नमक, काली नमक, सैंधा नमक, विडानमक और साम्हर नमक (पांगा) इन आठों को समान भाग लेकर प्रकौड़े के दूध की भावना देकर सुखाकर घर लेवे, फिर इसको लहसुन एवं अदरख के रस के साथ सेवन करावे तो इससे परिणाम-शूल, जलोदर, पार्श्वशूल, कटिशूल तथा कुक्षिशुल शांत होते हैं ।
६३ - त्रिबंध इच्छाभेदिरसः
त्रिकटुं टंकणं चैव पारदं शुद्ध गंधकं । जयपालचूर्ण गुण्यं गुडेन वटिकां कुरु ॥१॥ विरेचनकरश्चासौ मूत्ररोगविनाशनः । दीपने पाचने कुष्ठे ज्वरे तीव्र च शूलगे ॥२॥ मन्दाग्नौ चाश्मरीरोगे चानुपानविशेषतः । रोगिणश्च बलं दृष्ट्वा प्रयुज्यात् भिषगुत्तमः ||३|| संशोधनः शीतजलेन सम्यक् संग्राहक श्चोष्णजलेन सत्यम् ।
सर्वेषु रोगेषु च सिद्धिदः स्यात् श्रीपूज्यपादैः कथितोऽनुपानैः ॥४॥
टीका - सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, चौकिया सुहागा, शुद्ध पारा और शुद्ध गंधक इन सबको बराबर लेवे तथा पहले पारे और गंधक की कज्जली बनावे पश्चात् ऊपर की औषधियां मिलावे और शुद्ध जमालगोटा तीन भाग लेकर खूब पीसे तथा पुराने गुड़ के साथ गोली बांध लेवे। इसको अनुपान - विशेष से सेवन करने से विरेचन एवं मूत्ररोग शांत होता है । अग्नि को दीपन करनेवाली, पाचन करनेवाली, कोढ़ में हितकारी, ज्वर में, शुल में, अग्निमांद्य में एवं अमरी रोग में, उत्तम वैद्य रोगी का बल देखकर इसका प्रयोग करें तो यह इच्छाभेदी रस की गोली हितकारी है। यह इच्छाभेदीरस शीतल जल के साथ दोषों को शुद्ध करनेवाला तथा उष्ण जल के साथ संग्राहक है अर्थात् दस्तों को रोकनेवाला है।
६४ - गुल्मादौ भैरवीरस:
सूतकं कृष्णजीरं च विडंगं गंधकानि च । सौवर्चलं समं व्यो त्रिफलातिविषाणि च ॥१॥ सैधवं चामृतं युक्तं हेमतोर्याश्च तद्रसैः । मर्दयेत् गुटिकां कृत्वा प्रमाणं गुंजमानया ॥२॥
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