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वैद्य-सार
५८-कुष्ठे विजयरसः शुद्धतालं रसः गन्धं निभिस्तुल्या हरीतकी। सर्वतुल्ये गुड़े पक्त्वा निष्कमात्र निषेवयेत् ॥१॥ विजयश्च रसो क्षे यो रसोऽयं सर्वकुष्टनुत् ।
पूज्यपादप्रयोगोऽयं चर्मरोगकुलांतकः ॥२॥ टीका-हरताल भस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक एक एक भाग तथा तीनों के बराबर बड़ी हर्र का छिलका और इन सबों के बराबर बराबर पुराना गुड़, सबों को मिला एवं गोली बनाकर एक एक टंक प्रमाण अर्थात् तीन तीन मोशा सुबह शाम सेवन करे तो इससे सब प्रकार के काढ़ दूर होवे। साथ ही साथ सब प्रकार के चर्म रोगों के लिये उत्तम है।
५६-कुष्ठादौ बज्रपाणिरसः शुद्धसूतं ताम्रभस्म सिन्दूरं चाम्रभस्म च । यामं वाकुचोमिस्तु मर्दयित्वाथ गालयेत् ॥१॥ लौहपाने विनिक्षिप्य बाकुचीतल संमिते । द्विगुणं शुद्धगन्धं च पचेरैलेऽथ जोर्यति ॥२॥ तत्सम लौहभस्माथ पंचांग निबुभूरुहः ।। संमिल्य मिथुने सर्व निष्कं नित्यं निषेवयेत ॥३॥ निशाकणा नागराग्निबेल्लताप्यानि च क्रमात् । भागोत्तराणि संचूर्ण्य गोमूत्रण पिबेदनु ॥४॥ बज्रपाणिरसो नाम्ना कीटिभ हति दुर्जयं ।
दशाष्टविधकुष्ठानो पूज्यपादेन भाषितः ॥५॥ टोका-शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, रस सिन्दूर, अभ्रक भस्म, एक एक भाग लेकर इन सब को एक पहर तक बकची के तेल से मर्दन कर के गोला बनावे तथा लोहे के बर्तन में बकची के तेल में आंवलासार गन्धक २ भाग लेकर पकावे। जब पक जावे तब गन्धक को गर्म जल से धो एवं सुखा कर उस पूर्णा में मिला देवे और गन्धक के बराबर लौहभस्म लेवे। नीम का पञ्चांग तथा चिरायते का पञ्चांग मिलाकर सब को मर्दन करे और घोंट कर चूर्ण बनाकर रख लेवे। इसकी तीन माशे की मात्रा है। प्रातः काल सेवन करे। ऊपर से हल्दी, पीपल, सोंठ, विनक, काली मिर्च, सोनामक्खी ये कम से एक एक भाग बढ़ती लेकर घूर्ण
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