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वैद्य - सार
भयं ज्वालामुखा नाम पूज्यपादेन भाषितः । उष्णोदकानुपानेन सेविता च वटी नृणां ॥६॥ शूलं च गुल्मरोगं च दुःसाध्यं श्लेष्मगुल्मकं । ज्वरान् कफकृतान् हंति कफरोगान्विशेषतः ॥७॥ गलामयान् स्वरभ्रंशं पांडु शोफं कफं तथा । ग्रहणीं चातिमंदाग्नि चामकाष्ठं विशेषतः ॥ ॥ दुस्तर' चामवातं च जीर्णवातगदं तथा । सर्वव्याधिहरः शीघ्रं नाम्ना ज्वालामुखो रसः ॥६॥
टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, गोदंती हरताल, ताम्र भस्म तथा शुद्ध मेनसिल, वज्रभ्रक का भस्म, सब समान लेकर सब की कज्जली करे, फिर ३ तोला चतुर्जात (दालचीनी, इलायची, तेज पत्र, नागकेशर लेवे एवं शुद्ध विष नाग, कायफल, बांझ ककोड़ा, विदारीकंद, धनियाँ, कुटकी, शुद्ध कुचला, समुद्र नमक, काली मिरच, इन सबका एक एक तोला लेकर कूट कपड़छान कर इन सब के चूर्ण बराबर ऊपर की कजली लेकर मर्दन कर मीठे सोजना की जड़ और निर्गुडी जयंती ( अरनी) चित्रक इन सबके स्वरस में या काढ़े में लग अलग एक एक दिन भावना देकर सुखावे । पश्चात् हींग का पानी देकर चना बराबर गोली बांधे तब यह ज्वाला मुख नामक रस तैयार हो जाता है। यह पूज्यपाद स्वामी का बताया हुआ रस है । इसको गर्म पानी से सेवन करने से शूल रोग तथा दुःसाध्य कफजन्य गुल्म रोग, कफजन्य ज्वर, गले के रोग, स्वरभंग, पांडु रोग, शोथ रोग, कफजन्य कोई भी रोग, ग्रहणी, अत्यन्त मंदाग्नि, विशेष कर आम काष्ठ को तथा कठिन आमबात, जीर्ण बात आदि सम्पूर्ण रोगों को अनुपानयोग से यह नाश करता है
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- सन्निपाते - सन्निपातान्तको रमः रसं विषं रविं कृष्णां गंधकं चोषणं क्रमात् । द्विचतुः पंचत्रिदशव सुसंख्यकं (१) चाष्टकं ॥१॥ अर्कपत्ररसेनैव याममात्र तु मर्दयेत् । गुंजाप्रमाणवाटिकां छायाशुष्कां तु कारयेत् ॥२॥ कद्रवसंयुक्ता सन्निपात कुलांतिका । सर्वदोषविनाशनी पूज्यपादेन भाषिता ॥३॥
टीका - शुद्ध पारा २ भाग, शुद्ध विषनाग चार भाग, ताम्र भस्म पाँच भाग, पीपल १३ भाग, शुद्ध गंधक ८ भाग, कोली मिर्च ८ भाग इन सबको लेकर अकाना के पते के
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