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________________ वैद्य-सार सर्व लोकहितंकर विरचितं शास्त्रानुसारैः क्रमात् विख्यातं करुणाकरं रसवरं श्रीपूज्यपादोदितम् ॥७॥ टीका-दोषरहित तथा छः गुणों से युक्त, स्वच्छ, शुद्ध तथा शोधन-मारण करने वाले द्रव्यों से जीर्ण, अर्थात् पाठ संस्कार अथवा अट्ठारह संस्कार से शुद्ध किया हुभा पारा, शुद्ध नौसादर तथा शुद्ध मेनशिला ये तीनों समान भाग तथा पारे से पांचवे भाग सुहामा, पारे से १६ वा भाग शातलातार (थूहर) तथा पारे से आधा शुद्ध गंधक (भावला. सार गंधक) सबको मिला कर शुभ दिन, शुभ नक्षत्र शुभ मुहूर्त में खरल में मर्दन करके घीकुमारी (गंवारपाठा), पाक का दूध, हंसराज (तिपतिया), चित्रक, जंबोरी नींबू का रस तथा नत्रिक, गोभी, नखरंजित (एक सुगंधित पदार्थ), नागरबेल (पान), कोहा-नके स्वरस में एक-एक दिन अलग-अलग खूब मर्दन करके घाम में सुखा करके कांच की शीशी में बंद करे तथा वालुकायंत्र में शीशी के नीचे ३ अंगुल वालुका रहे फिर शीशी के मुंह तक वालुका भर देवे और उसको क्रम से मन्द, मध्य, खर आँच १२ प्रहर तक देवे; फिर उस शीशी में से वह पारा निकाल कर उसे उपयुक्त सब औषधों के स्वरस में अलग-अलग मर्दन करे तथा दो दिन तक फिर वालुकायंत्र में पकावे। पाक होने पर पारा निकाल कर उन्हीं द्रव्यों के स्वरस में घोंट एवं सुखा कर वालुकायंत्र में पकावे तथा २४ प्रहर तक बराबर भांच दे। इस प्रकार तीन बार पाक करे तो यह योग सहस्र गुणों से युक्त होता है। इसलिये इसको युक्तिपूर्वक तीन बार अवश्य ही पकावे। यह पका हुआ पारा सिद्ध होने पर मंगलमय है तथा इसको इष्टदेव की पूजा करके सेवन करे। यह उदय हुए सूर्य के रङ्ग के समान स्वच्छ, उत्कृष्ट सूर्य की आभा-सहित सिद्ध पारद रसायन (महारससिन्दूर) अनेक रोगों को हरनेवाला धर्म, अर्थ, काम को देनेवाला होता है । काली मिर्च तथा घी के साथ खाने से वायु-रोग शान्त होते हैं तथा पीपल और मधु के साथ सेवन करने से कफजन्य रोग शान्त होते हैं। सोंठ, मिर्च, पीपल और अर्कतार (अकौने के क्षार) के साथ सेवन करने से मंदाग्नि शान्त होती है, तथा अनेक अनुपान के योग से सम्पूर्ण सनिपातों को और श्वास, कास अरोचक, तय को जीतता है, कामानि को दीपन करनेवाला, शरीर को -पए करनेवाला, बल को देनेवाला, सुखप्रद, सुन्दरता को देनेवाला यह सुवर्ण के समान कान्तिवाला योग नित्य ही सेवन करना चाहिये। यह योग सज्जनों की रक्षा करने एवं वैद्यों को कीर्ति का देनेवाला तथा सम्पूर्ण लोक का हित करनेवाला शास्त्र के अनुसार भ्रष्ठ श्रीपूज्यपाद स्वामी ने कहा है। यह प्रसिद्ध और श्रेष्ठ रस है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035294
Book TitleVaidyasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyandhar Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year1942
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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