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वैद्य-सार
कुंचितफेन (?) केशश्च गृद्धात्तश्च प्रजायते । वारणश्रुतसंपन्नो वराटश्रावणः भवेत् ॥ ५ ॥ बणमासप्रयोगेण दिव्यदेहो भवेन्नरः । संवत्सरप्रयोगेण कायपरिवर्तनं भवेत् ॥ ६॥
टोका-कांत लौहभस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध शिला, माक्षिक भस्म, शुद्ध गंधक, तकिया • हरताल की भस्म, तामे की भस्म, सुहागे का फूला, शुद्ध शिला, शुद्ध पारा, शीसे को भस्म, हरे, बहेरा, आंवला कांत लौहभस्म, बकची के बीज, तज ये सब बराबर लेकर एकत्रित करके खूब घोंट कर तैयार करले और फिर विषम मात्रा शहद एवं घी लेकर तथा समयानुसार विशेष अनुपान से प्रयोग करे तो अट्ठारह प्रकार के कोढ़ रोग, सात प्रकार का क्षय रोग, स्नेहवात, गुल्मरोग, भगंदर रोग, १८ प्रकार के योनिदोष और त्रिदोष नाश को प्राप्त होते हैं । इस रसायन के सेवन करने से शिर के केश कुंचित तथा मुलायम होते हैं एवं गीध के समान तेज आँखें हो जाती हैं। हाथी और बराह के समान तेज सुननेवाला हो जाता है। और तो क्या छः महीना इसके सेवन करने से मनुष्य वििor (सुंदर) शरीरवाला हो जाता है और एक वर्ष प्रयोग करने पर शरीर का एक विशेष परिवर्तन हो जाता है ।
१५२ – अमृतार्णवरस:
• रसभस्मतयो भागाः भागकं हेमभस्मकं । भागार्धममृतं सत्त्वं सितमध्वाज्यमिश्रितं ॥ १ ॥ किं मर्दितं खल्वे मासैकं भत्तयेत् सदा । कृशानां कुरुते पुष्टिं रसोऽयममृतार्णवः ॥ २ ॥
टीका-गरे की भस्म तीन भाग, सोने को भस्म १ भाग तथा आधा भाग निषनाग का सत्व इन सब को मिश्री शहद एवं घी के साथ एक दिन भर खूब मर्दन करे । इसे एक माह तक सेवन करे तो दुर्बल मनुष्य भी बलवान होता है । यह अमृतार्णवरस सर्वश्रेष्ठ है ।
१५३ - व्रणादौ जात्या दिघृतम् जातीपत्र पटोल च निंबोशीरकरंजकं । मंजिष्ठं मधुयष्टी च दार्वी पत्त्रकसारिवा ॥ १ ॥
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