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वैद्य - सार
१४७ - आमवाते रसादियोगः
भास्यैकं रसं कुर्यात् द्विभागं गंधकं तथा । विभागं त्रिफला चूर्ण चतुर्भागं विभीतकं ॥ १ ॥ गुग्गुलुं पंचभागं तु षड्भागं च चित्रकम् । सप्तभागा च निर्गुण्डी चैरंडतैलसंयुतं ॥ २ ॥ भक्षयेद् गुडसंयुक्तञ्चामवातं तु नाशयेत् । पूज्यपादोक्तयोगोऽयं अनुपान विशेषतः ॥ ३ ॥
टीका - एक भाग शुद्ध पारा, दो भाग शुद्ध गंधक, तीन भाग त्रिफला का चूर्ण, चार भाग बहेड़े के बकले का चूर्ण, पांच भाग शुद्ध गुग्गुल, छः भाग चितावर, सात भाग नेगड़ के बीज इन सब को एकत्रित कर कूट कपड़छन कर के अन्डी का तेल तथा पुराने गुड़ के साथ योग्य अनुपान एवं योग्य मात्रा से सेवन करे तो उसके सेवन से ग्रामवात नाश होता है। यह पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ उत्तम योग है ।
१४८ - रसादिमर्दनः
गंधौ समौ शुद्ध विष्णुक्रान्ताद्रवैर्दिनं । आरक्तागस्त्यजैर्द्रावैः स्त्रीस्तन्येन हि मर्दयेत् ॥ १ ॥ मध्वाज्ययवसंयुक्तमेतदुद्वर्तनं हितम् ।
काश्यं जयति परमासाद् वत्सरान्मृत्युद्भिवेत् ॥ २ ॥
टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक इन दोनों को सफेद कोयल के रस से फिर लाल अगस्ति (हथिया) के रस से तथा स्त्री दुग्ध से एक-एक दिन पृथक्-पृथक् खरल करे । तैयार होने पर शहद, घी तथा जौ का आटा इन तीनों को मिला कर उबटन करावे तो इससे शरीर की कृशता दूर होती है । एक वर्ष लगातार उबटन करने से मृत्यु को जीतनेवाला होता है अर्थात् शरीर विशेष बलवान हो जाता है।
१४६ – पूर्णचन्द्ररसायनः
मृतं सुताम्रलौहं च शिलाजतु विडंगकं । ताप्यं क्षौद्रं घृतं तुल्यमेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥ १ ॥
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