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वैद्य-सार
१४४ - ग्रहणी रोगे अर्कादियोगः अर्कवातार्कवह्नीनां प्रत्येकं षोडशं पलं । चतुष्पलं सुधाकांडं त्रिपलं लवणत्रयं ॥ १ ॥ वार्ताकोत्थद्रवैः पिष्ट्वा रुद्ध्वा सर्व पुटे पचेत् । वार्ताकोत्थद्रवैरेवं निष्कांशं गोलकं कृतम् ॥ २ ॥ भोजनांते सदा खादेत् ग्रहणीश्वासकासजित् । पदभुक्ते तज्ज्चरत्याशु नदीवेगप्रभाववत् ॥ ३ ॥
टीका – सूखे अकौना (आक) के पके पत्ते १६ पल (६४ तोला), सूखे बैंगन १६ पल, चित्रक १६ पल, थूहर के सूखे डंडे ४ पल, ४ तोला सेंधा नमक, ४ तोला काला नमक, ४ तोला समुद्र नमक, इन सब को एकत्रित कूट कर बैंगन के रस से भावना देकर सब को मिट्टी के शरावे में बंद कर के पुटपाक करे। जब पुटपाक हो जाय तब बैंगन के रस से ही इसकी तीन तीन माशे की गोली बाँधे और सदैव भोजन के बाद सेवन करे तो यह ग्रहणी, श्वांस, खाँसी को नदी के बेग की तरह शीघ्र नष्ट कर देती है ।
१४५ - सन्निपाते गंधकादियोगः गंधकार्द्रकरसं तुत्थं शिलाविषं तु हिंगुलं । मृतमान्त्रिककांताभ्रताम्रलौहाः समं समं ॥१॥ अम्लवेतस जंबीरचांगेर्या हि रसेन च । निर्गुण्ड्याः हस्तिशुंड्याश्च रसेन सह मर्दितं ॥२॥ पुटपक्वं कषायेण चित्रकस्य विभावितं । जग्ध्वा - सहिंगुकर्पूर व्योषार्द्रकरसानुपः ॥३॥
मृतोऽपि सन्निपातेन जीवत्येव न संशयः । पूज्यपादप्रयोगोऽयं सन्निपातरुजांतकः ॥४॥
टीका - शुद्ध गंधक आंवलासार, शुद्ध पारा, आदा (सोंठ), शुद्ध तूतिया की भस्म, शुद्ध मैनशिल, शुद्ध विषनाग, शुद्ध सिंगरफ, सोनामक्खी की भस्म, कांतलौह की भस्म, अभ्रकभस्म, तामे की भस्म, लोहे की भस्म ये सब प्रौषधियाँ बराबर-बराबर लेकर इकट्ठी करे और अमलवेंत जंबोरी नींबू, चांगेरी (चोपतिया) नेगड़ एवं हाथीशुंडी (शाक विशेष) के रस से अलग अलग भावना देकर सुखावे और पुटपाक करे एवं बाद में चित्रक के स्वरस से भावना देवे । जब सूख जावे तब योग्य माला से हींग एवं कर्पूर के साथ से
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