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वैद्य-सार
अंजनं सर्वकार्ये वा ज्वरज्वालाशताकुले । ब्रह्मराक्षसभूतादिशाकिनीडाकिनीगण-॥४॥ कालवजमहादेवीमदमातंगकेशरिवृषभादि सुसंस्थाप्य श्रीदेवीश्वरसूरिणम्॥५॥ पूजनं चाशु कृत्वा च यथायोग्यं प्रकल्पयेत् । . कथितोऽयं त्रिलोकस्य चूड़ामणिमहारसः॥६॥ पार्श्वनाथस्य मंत्रेण स्तंभोभवति तत्क्षणम् ।
पूज्यपादेन कथितः सर्वमृत्युविनाशनः ॥७॥ टीका-शुद्ध पारा, सुहागे की भस्म, तूतिया की भस्म, शुद्ध विष, लांगली (कलिहारी) की जड़, जियापोता की रींगी, शुद्ध आँवलासार गंधक तथा गुंजावृक्ष के पत्ते इन सब को बराबर-बराबर लेकर पहले पारे, गंधक की कजली बनाये ; पीछे और सब दवाइयाँ अलग अलग कूट-कपड़-छन करके मिलावे तथा देवदाली, हंसराज, हुलहुल नागदौन, धतूरा, नागकेशर इन सबके स्वरस से अथवा क्वाथ से एक-एक दिन अलग घोटे और बट के बोज-समान गोली बनाकर जंभीरी के रस के साथ सेवन करावे। मूविस्था में नास भी देवे, आवश्यकता आने पर या सन्निपात की दशा में अञ्जन भी लगाके । इसका सेवन करने से कठिन से कठिन ज्वर भी शांत होता है। इसका जब सेवन करे तब ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, .शाकिनी इत्यादि व्यन्तर-रूपो मातंग के लिये सिंह सदृश श्रीजिनेन्द्र देव की स्थापना करके पूजन करे तो शीघ्र ही लाभ होता है और श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के मंत्र से तो उसी क्षण रोग का स्तम्भन होता है। यह तीन लोक का शिरोमणि त्रिलोक चूडामणि रस पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ अपमृत्यु का नाश करनेवाला है।
११८-सर्वज्वरे ज्वरांकुशरसः पारदं गंधकं ताप्यं टंकणं कटुकत्रयम् । चित्रकं निंबबीजानि यवक्षारं च तालम् ॥१॥ एरंडवीजसिंधूत्थं हारीतक्यं समांशकम् । शुद्धस्य वत्सनाभस्य पंचभागं च निक्षिपेत् ॥२॥ जैपालं द्विगुणां चैव निर्गुण्ड्याः मदयेद्धैः ।। पशव्रीहिसमो देयः सर्वज्वरगजांकुशः ॥३॥ पृथिव्या चाजमोदेन पिष्टश्च सहितं जलैः । ज्वरानिष्वपि रोगेषु सर्वेषु हितकद्भवेत् ॥४॥
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