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देशावकाशिक व्रत की दूसरी ब्याख्या कह कर आरम्भ, समारम्भ के काम कराता है, तो ऐसा करने से उसका त्याग भंग नहीं होता। क्योंकि उसने दूसरे के द्वारा भारम्भ, समारम्भ कराने का त्याग नहीं किया है।
इसी तरह इस व्रत को स्वीकार करने के लिए जो प्रत्याख्यान किये जाते हैं, वे एक करण और एक योग से भी हो सकते हैं । ऐसे प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति, केवळ शरीर से ही बारम्भ, समारम्भ के कार्य नहीं कर सकता। मन और वचन के सम्बन्ध में तो उसने त्याग ही नहीं किया है न कराने या अनुमोदन का ही त्याग किया है। ये त्याग बहुत ही अल्प हैं, इनमें आश्रवों का बहुत कम अंश त्याग जाता है और अधिकांश प्रत्याख्यान नहीं होते।
कई लोगों को यह भी पता नहीं होता कि हमने किस प्रकार के त्याग द्वारा दया या छः काया व्रत स्वीकार किया है। ऐसे लोग इस व्रत के लिए किये जाने वाले प्रत्याख्यान के भेदों को नहीं जानते और ऐसे लोगों को त्याग कराने वाले नोचो श्रेणी का ही त्याग कराते हैं। ऐसा होते हुए भी, ऐसे लोगों की वृत्ति की तुलना मुनियों की वृत्ति से की जाती है, जो असंगत है। यदि इस सम्बन्ध में विवेक से काम लिया जावे, तो किसी को इस व्रत के विषय में कोई भाक्षेप करने का अवसर न मिले ।
दया व्रत भी एक प्रकार का पौषध व्रत ही है। पौषध से
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