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देशावकाशिक व्रत
अर्थात् - देशावकाशिक व्रत में दिक व्रत की मर्यादा का संक्षेप करना मुख्य है, लेकिन उपलक्षण से अन्य अणुवतों को भी अवश्य संक्षेप करना चाहिये, ऐसा वृद्ध पुरुष प्रतिपादन करते आये हैं।
इस कथन से स्पष्ट है कि जिस व्रत में जो मर्यादा रखी गई है, उन सभी मर्यादाओं को घटाना, आवश्यकता से अधिक छूट रखी हुई मर्यादा को परिमित कर डालना ही देशावकाशिक व्रत है। उदाहरण के लिए चौथे अणुव्रत में स्वदार विषयक जो मर्यादा रखी गई है, उसको भी घटाना। इसी प्रकार पाँचवें और सातवें व्रत में रखी गई मर्यादा भी घटाना। इस प्रकार व्रत स्वीकार करते समय जो मर्यादा रखी गई है, उस मर्यादा को घटा डालना यही देशावकाशिक व्रत है।
अब यह बताया जाता है कि इस देशावकाशिक व्रत को स्वीकार करने का उद्देश्य क्या है।
विवेकी श्रावक की सदा यह भावना रहा करती है कि वे लोग धन्य हैं, जिन्होंने अनित्य, अशाश्वत एवं अनेक दुःख के स्थान रूप गृहवास को त्याग कर संयम ले लिया है। मैं ऐसा करने के लिए अभी सशक नहीं हूँ, इसो से गार्हस्थ्य जीवन बिता रहा हूँ। फिर भी मुझ से जितना हो सके, मैं गृहवास में रहता हुश्रा भी त्याग-मार्ग को अपनाऊँ।' इस भावना के कारण श्रावक ने व्रत स्वीकार करते समय जो मर्यादा रखी है उस मर्यादा को भी वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com