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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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तथा भोग्योपभोग के लिए जो पदार्थ रखे हैं, उन सब का उपयोग वह प्रति दिन नहीं करता है। इसलिए एक दिन रात के लिए उस मर्यादा को भी घटा देना, आवागमन के क्षेत्र और भोग्योपभोग्य पदार्थ की मर्यादा को कम कर देना ही देशावकाशिक व्रत है । स्थानाङ्ग सूत्र के चतुर्थ स्थान के तीसरे उद्देशे में टीकाकार इस व्रत की व्याख्या करते हुए लिखते हैं :
देशे दिगवत प्रहितस्य दिकपरिमाणस्य विभागोऽवकाशोऽवस्थानमवतारो विषयोतस्य तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिकम् दिग्वत ग्रहितस्य दिक् परिमाणस्य प्रतिदिनं संक्षेप करण लक्षणे वा ।
अर्थात् -- दिक् व्रत धारण करने में जो अवकाश रखा है, उसको प्रति दिन संक्षेप करने का नाम देशावकाशिक व्रत है ।
इस पर से यह प्रश्न होता है कि उक्त टोका में तो दिक्परिमाण व्रत में रखी गई मर्यादा घटाने को ही देशावकाशिक व्रत कहा गया है। उपभोग्य - परिभोग्य पदार्थ की मर्यादा घटाने का विधान इस जगह नहीं है। फिर दिक व्रत और उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत, इन दोनों में रखी गई मर्यादा घटाने का विधान क्यों किया जाता है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए वृत्तिकार कहते हैं :
दिग्व्रत संक्षेप करणमणुव्रताऽऽदि संक्षेप करणस्थाप्युपलक्षणं दृष्टव्यं तेषामपि संक्षेपस्यावश्यं कर्त्तव्यत्वात् ।
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