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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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अतिशय शानियों ने अपने ज्ञान में देखा है, लेकिन उन ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में किन भावों को देखा है, इस बात का पता अल्पज्ञों को नहीं हो सकता। इसलिए अल्पज्ञों के लिए तो यही सिद्धांत मानना ठीक है कि जैसा हम करेंगे, वैसा ही होगा। शास्त्र में भी कहा है--
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाणिय सुहाणिय । अप्पा मित्त ममित्तं च दुपट्टिओ सुपट्टिओ॥
(श्री उत्तराध्ययन सूत्र) भावार्थ-अपना आत्मा ही सुख और दुःख का कर्ता है। अपना आत्मा ही अपना मित्र और अमित्र ( शत्रु ) है। अपना आत्मा ही दुर्गति या सुगति में प्रविष्ट होता है।
इस प्रकार आत्मा ही कर्ता तथा भोक्ता है। आत्मा जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है। इसके लिए कहा है
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवन्ति ।
दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवन्ति ॥ अर्थात्-आत्मा जैसा शुभ या अशुभ करता है, वैसा ही शुभ या अशुभ फल भी भोगता है।
किये हुए शुभाशुभ का फल भोगने में तो आत्मा का वश चलता भी है और नहीं भी चलता है, लेकिन कर्म करने में तो भारमा स्वतन्त्र है। ऐसा होते हुए भी कई लोग कर्म या भाग्य को ओट ले लेते हैं, लेकिन ऐसा करना केवल अपनी कायरता को डॉकने का प्रयत्न करना है। यदि मात्मा चाहे, तो वह सब कुछ
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