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सामायिक का उद्देश्य
और जब तक वीतराग दशा प्रकट नहीं होती है, तब तक रागद्वेष का सर्वथा नाश भी नहीं होता है, न पूर्ण समभाव की प्राप्ति ही होती है। वीतराग दशा प्रकट करने का मार्ग, आत्मा को शुक्लध्यान में लगाकर मोहकर्म को प्रकृतियों को उड़ाना और ग्यारहवें या बारहवें आदि गुणस्थान पर पहुँचना है। ऐसी दशा में यह प्रश्न होता है, कि जब तक इस स्थिति पर न पहुँचा जाय, तब तक क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए सिद्धान्त कहता है कि पूर्ण समभाव तो वीतराग दशा प्रकट होने पर ही होगा, फिर भी इसके लिए क्रिया करते रहना चाहिए। बिना क्रिया किये एक दम वह स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती, कि जिसके प्राप्त होने पर पूर्ण समभाव प्राप्त हो जाय । वह स्थिति क्रिया करते रहने से हो प्राप्त हो सकती है। अतः वीतरागावस्था को ध्येय बनाकर, वह अवस्था प्राप्त करने लिए क्रिया करते ही रहना चाहिए। क्रिया न करके केवल यह कह कर बैठ रहने से कि 'ज्ञानो महाराज ने ज्ञान में जैसा देखा होगा वैसा होगा' कोई भी व्यक्ति उस अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। इस तरह के कथन का अर्थ तो यही हुश्रा, कि हमारे किये कुछ भी नहीं होता है, लेकिन ऐसा मान बैठना, जैन सिद्धान्त को न समझना है। जिन लोगों को जैन सिद्धान्त का थोड़ा भी अभ्यास है, वे तो यहो मानेंगे, कि हमें क्रिया अवश्य ही करनी चाहिए । यद्यपि होता तो वही है, जो
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