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अतिथि संविभाग प्रत
माज के बहुत से श्रावक दूसरे का हित करने और दूसरे का दुःख मिटाने के समय भारम्भ, समारम्भ की दुहाई देने लगते हैं, और प्रारम्भ, समारम्भ से बचने के नाम पर कृपणता एवं अनुदारता का व्यवहार करते हैं। लेकिन ऐसा करना बड़ी भूल है। अपने भोग-विलास एवं सुख-सुविधा के समय तो आरम्भ, समारम्भ की उपेक्षा करना और दीनों का दुःख मिटाने के समय आरम्भ, समारम्भ की आड़ लेना कैसे उचित हो सकता है ! श्री भगवती सूत्र के दूसरे शतक के पाँचवें उद्देश्ये में तुंगिया नगरी के श्रावकों की ऋद्धि का इस प्रकार वर्णन है:
अड्डा दित्ता विच्छिण्ण विपुल भवण सयणासण जाण वाहणाइण्णा बहुधण बहुजाय रूव रयया आओग पाओग सम्पउत्ता विच्छडिय विपुल भत्त पाणा बहु दासी दास गो महिस गवेलग पभुआ, बहु जणस्स अपरिभुया, अभिग्गय जीवा जीवा जाव उसिय फलिहा अभंग दुवारा।
इस पाठ से स्पष्ट है कि तुंगिया नगरी के श्रावकों के यहाँ बहुत से दासी-दास एवं पशुओं का पालन होता था, बहुत-सा भात, पानी निपजता था और उनकी सहायता से बहुत लोगों की बाजीविका चलती थी। इस कारण उनके यहाँ अधिक बारम्भ, समारम्भ का होना स्वाभाविक ही है। वे श्रावक होकर भी उनके यहाँअधिक भारम्भ-सारम्भ होता था, तो क्या वे आरम्भ-समारम्भ
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