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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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समणो वासए जाए अभिग्गए जोवा जीवे जाव पडिलाभे माणे विरहई। अर्थात्-वह श्रमणोपासक अवस्था में जन्मा है और जीव अजीव का ज्ञाता होकर यावत् प्रतिलाभित करता हुआ विचरता है।
इस पाठ के द्वारा श्रावक को द्विजन्मा कहा गया है। श्रावक का एक जन्म श्रावकपन स्वीकार करने के पहले होता है और दूसरा जन्म श्रावकपन स्वीकार करने के पश्चात होता है। श्रावक होने से पहिले वह व्यक्ति जिन भोग्योपभोग्य पदार्थों में आसक्त रहता था, ममत्वपूर्वक जिनका संग्रह करता था और जिनके लिए लेश, कंकाश एवं महान् अनर्थ करने के लिए उतारू हो जाता था, वही श्रावक होने के पश्चात् उन्हीं पदार्थों को अधिकरण रूप ( कर्म बन्ध का कारण ) मानता है और उनसे ममत्व घटाता है तथा संचित सामग्री से दूसरे को सुख-सुविधा पहुँचाता है। इस प्रकार श्रावकत्व स्वीकार करने के पश्चात् मनुष्य की भावना भी बदल जाती है और कार्य भी बदल जाते हैं। उसकी भावना विशाल हो जाती है। ऐसा होने पर ही श्रावक अपने लिए लगाये गये 'द्विजन्मा' विशेषण को सार्थक कर सकता है, लेकिन यदि श्रावक होने पर भी सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्व बढ़ा हुआ हो रहा, दीन दुःखियों को सुखी बनाने की भावना न भाई तो उस दशा में यह कैसे कहा जा सकता है कि उसका 'द्विजन्मा' विशेषण सार्थक है!
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