________________
११९
पौषधोपवास व्रत प्रतिकूल परिषह की ही तरह अनुकूल परिषह होने पर भी पौषध व्रत-धारी श्रावक को दृढ़ ही रहना चाहिए । कैसा भी अनुकूल परिषह हो, विचलित न होना चाहिए। भगवान् शान्तिनाथ के पूर्व भवों के वर्णन में एक जगह कहा गया है कि एक समय महाराजा मेघरथ पौषध व्रत में बैठे हुए थे। उसी समय ईशान्यकल्प (स्वर्ग) में ईशान्येन्द्र महाराज ने अपनी इन्द्रानियों की सभा में प्रसंगवश राजा मेघरथ की प्रशंसा करते हुए कहा कि पौषध व्रत में बैठे हुए महाराजा मेघरथ को धार्मिक वृत्ति से विचलित करने में कोई भी समर्थ नहीं है। ये ही महामुज भविष्य में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शान्तिनाथ नाम के पंचम चक्रवर्ती और सोलहवें तीर्थकर होंगे।
इन्द्र द्वारा की गई महाराजा मेघरथ की प्रशंसा सुनकर अन्य इन्द्रानियाँ तो प्रसन्न हुई, लेकिन सुरूपा और अतिरूपा नाम की इन्द्रानियों ने महाराजा मेघरथ की धर्मदृढ़ता की परीक्षा लेने का विचार किया। वे दोनों अप्सराएँ मर्त्यलोक में वहाँ आई, जहाँ महाराजा मेघरथ पौषधशाला में पौषधव्रत धारण करके ध्यानस्थ थे। उन अप्सराओं ने बियोचित हाव-भाव एवं कामोद्दीपक राग-रंग द्वारा महाराजा मेघरथ को विचलित करने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु महाराजा मेघरथ अविचल ही रहे और क्षुभित न हुए। जब रात समाप्त हो चली और प्रातःकाल होने लगा, तब वे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com