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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
११८ दिखाया और किसी को धन-हरण का। इस तरह के सोमातीत भयंकर दृश्यों को देखकर व सुनकर उन व्रतधारी श्रावकों की सहनशीलता कायम न रही। वे उस देव को पकड़ने के लिए उठे, लेकिन उनके हाथ वह देव न आया किन्तु थम्भा आया । उस थम्भे को पकड़ कर उन श्रावकों ने जोर से हल्ला किया।
इस तरह के वर्णन देकर शास्त्रकार उन श्रावकों के लिए 'भग्ग वए' 'भग्ग पोसए' लिखते हैं। यानि यह लिखते हैं कि उन श्रावकों का व्रत और पौषध भंग हो गया। इस पर से समझ लेना चाहिए कि पौषध व्रत को अभंग रखने के लिए श्रावक को कैसा सहनशील रहना चाहिए। जो अपना पौषध व्रत अभंग रखना चाहता है, वह मरणदायक उपसर्ग भी शान्तिपूर्वक सह लेता है। किन्तु उपसर्ग से विचलित होकर व्रत भंग नहीं करता है। महाराजा उदायन पोषध व्रत में थे, तब रात के समय एक साधु वेशधारी ठग ने उनको घोर उपसर्ग दिया अर्थात् उनके प्राण ले लिये। यदि महाराज उदायन चाहते तो वे हो-हल्ला कर सकते थे और उस दशा में सम्भव था कि उनके प्राण भी बच जाते अथवा वह ठग पकड़ा भी जाता। लेकिन वे उस स्थिति में भी सहनशील ही रहे। इस तरह की क्षमा, सहनशीलता और हृढ़ता से ही उन्होंने तीर्थकर नाम गोत्र का उपार्जन किया तथा वेगळी चौबीसी में तीसरे तीर्थकर भगवान होंगे।
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