SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७६ ) इसी प्रकार धर्म का आचरम यह भी हमारी संस्कृति का प्रतीक हमेशा से रहा है। इसीलिये हमारे शिक्षण के अन्त में गुरु के आशीर्वाद की प्रसादी में हमें यही प्राप्त होता है कि "धर्मचर", 'सत्यं वद' धर्मकामाचरण करो और सत्य बोलो । आज बड़े लोग, खास कर के राजनीतिज्ञ लोग धर्म के नाम से भड़कते हैं । वे चाहते हैं कि शासन 'धर्म से निरपेक्ष हो किन्तु शासन का संचालन मानव द्वारा होता है और मानव जीवन धर्म से निरपेक्ष नहीं रह सकता और इसीलिये शासन धर्म से निरपेक्ष नहीं रह सकता। क्योंकि, वस्तु अपने स्वभाव से जैसे निरपेक्ष नहीं रह सकती, वैसे मानव मानवता के धर्म से निर. पेक्ष नहीं रह सकता। महात्मा गांधी ने अहिंसा, सत्य आदि को राजनीति में प्रविष्ट किया। इसी से उनकी विजय हुई और देश की स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। यह बात प्रत्येक शासनकर्ता और राजनीतिज्ञ जानता है। फिर भी, यह कहना कि शासन धर्म से निरपेक्ष हो, यह तो 'वदतो व्याघात,' नहीं तो क्या है ? हां, उनकी परिभाषा में धर्म की व्याख्या अन्य किसी प्रकार से की जाती है। तो यह बात दुसरी है। धर्म वह है जो हमें सन्मार्ग पर लाता है, जो हमें उन्नति शील बनाता है, जो हमें राग द्वेष रहित बनाता है, जो गिरते हुए को बचाता है अथवा संक्षेप में कहा जाय कि जो वस्तु मात्र का स्वभाव है। जैन शास्त्रों में धर्म की व्याख्या की है-'वस्तुसहावा धम्र्मो' वस्तु का स्वभाव, यह है धर्म । मानवता का स्वभाव है मानवना। यही उसका धर्म है। कौन कह सकता है कि मानव मानवता से निरपेक्ष है। भारतीय संस्कृति में आचार (आचरण) को भी धर्म का एक अङ्ग माना है । खान, पान, रहन, सहन, विनय, विवेक, सभ्यता, दाक्षिण्य, शील यह आचार के अङ्ग हैं। इससे पतित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035233
Book TitleSamayik Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year1953
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy