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जिसको कुछ इतिहासकार आदि काल कहते हैं देखा जाय तो जब मानस ने जीवन का विकास नहीं किया था, उस समय भी मानव जाति अपने स्वाभाविक फलाहार से जीवन निर्वाह करती थी.। प्रभिद्ध बंगाली इतिहासकार राखावदास बन्योपाध्याय ने अपने बंगला इतिहास भाग १ के पृष्ठ ३ में लिखा है 'पृथ्वी तत्व और प्राणी तत्व को जानने वाले इस निर्णय पर आये हुए हैं कि मानव जाति के शैशवकाल में मनुष्य शाक भोजी थे..........
.."यह निश्चित है कि, मानव जीवन के प्रारम्भ में हमारे पूर्व पुरुप फलाहारी थे, मांसाहार नहीं करते थे।" "माँसाहारी . जीवों को जन्मकाल से जिस प्रकार के तीक्ष्ण दाँत होते हैं, वैसे मनष्यों को कभी किसी अवस्था में नहीं होते।"
पुरतित्व की खोज करने वालों ने जैसे यह निश्चय किया है कि प्राचीन काल में मानव जाति मांसाहार नहीं करती थीं। शरीर रचना की द्रष्टि से देखा जाय तो मांचाहार यह मनष्य की स्वाभाविक खुराक नहीं है । न केवल मनुष्यों के लिये ही, किन्तु संसार में प्राणी मात्र के दो विभाग हैं एक माँसाहारी और दुसरा वनस्पति आहारी। हाथो, गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि जानवर, जो मांसाहरी नहीं हैं चाहे वह जंगल में रहते हों चाहे मनुष्य वस्ती में, इसके अतिरिक्त बाघ, शेर, बिल्ली, कुत्ता आदि कई जानवर हैं, जो मांसाहारी हैं। हमें देखना चाहिये कि वनस्पति आहारी और मांसाहारी जीवों में कुदरत ने क्या अन्तर रखा है ? उनके दांत, जीभ आदि जठर-तीनों - चीजें, जो प्रत्येक प्राणी को उपयोग में आती है, भिन्न भिन्न हैं। मांसाहारी के दांत टेढ़े होते हैं । शेष के दांत भिन्न प्रकार के होते हैं । मांसाहारी जीवों की जिव्हा इस प्रकार की बनी है कि वह पेय पदार्थ का उस जिव्हा से गृहण करते हैं, अर्थात मांसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com