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आदि के कारण बुरा काम करते हुये भी, उसको बुरा सममना, एवं पाप समझना, यह भारत की संस्कृति का मुख्य लक्षण रहा
भारतीय शिक्षण के हेतु में भी आध्यात्मिकता की भावना ही प्रधान रही है । 'सा विद्या या विमुक्तये' 'ऋते ज्ञानात न मुक्तिः' ये उसी सिद्धान्त के प्रतीक हैं। वही विद्या, विद्या है जो मुक्ति के लिए साधन भूत हो' तथा 'ज्ञान विद्या के बिना मुक्त नहीं होती' यह दिखला रहा है कि शिक्षण में हमारा हेतु आत्मकल्याण का था, ईश्वर के निकट पहुंचने का था और उसी हेतुके परिणाम-स्वरूप हमारे सामने यह कर्तव्य रक्खा गया था कि 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव,' 'प्राचार्य देवो भव,' 'मतिथिदेवो भव,' 'धम चर' 'सत्यम् वद' इत्यादि ।
शिक्षण का क्षेत्र पवित्र क्यों ? मानव को सच्चा मानव बनाने के लिये ही हमारा शिक्षण, शिक्षण का कार्य करता था। ऐहिक-सुख तो उसके अन्तर्गत था। वह अनायास ही मिल जाता था। भौतिक सुखों का लक्ष्य भारतीय-शिक्षण्म में नहीं था, फिर भी भारतीय प्रजा उन सुखों से वंचित भी नहीं रहती थी, क्योंकि आध्यात्मिकता-यात्मिकशक्ति-एक ऐसी चीज है जिसके आगे कोई भी सिद्धि हस्तगत हुये बिना नहीं रहनी, इसीलिए भारतवर्ष में शिक्षण को सबसे अधिक पवित्र क्षेत्र माना है।
विद्यागुरु का महत्वप्राचीन काल में विद्या, विद्यागुरु और विद्यार्थी, इस त्रिपुटी की एकता होती थी। विद्यार्थी विद्या के उपार्जन में विद्यागुरु को एक महत्व का स्थान मानता था। विद्या की प्राप्ति में विद्या-गुरु
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