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शिक्षण और चरित्र-निर्माण
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मानव जाति के साथ शिक्षस का सम्बन्ध हमेशा से चला आया है । कोई ऐसा समय नहीं था, जबकि मनुष्य को शिक्षरण न दिया जाता हो । संसार परिवर्तनशील है, इसलिये शिक्षण की पठन-पाठन प्रणाली में, एवं पाठ्यक्रम तथा अन्यान्य साधनों में परिवर्तन अवश्य होता रहा है। किन्तु, शिक्षण, यह तो अनिवार्य वस्तु बनी रही है। " आवश्यकता आविष्कार को जननी " जिस-जिस समय जिस चीज की आवश्यकता उत्पन्न होती है, उस समय उस चोज की उत्पत्ति अनायास हो ही जाती है। "कार स के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती" । किसी भी देश में, किसी भी समाज में बल्कि किसी भी कुटुम्ब और व्यक्ति में भी, जो-जो प्रबत्तियां होती हैं, वे सब सहेतुक ही हुआ करती हैं। शिक्षण, एक या दूसरी रीति से सभी देशों, समाजों और व्यक्तियों में हुआ, होता आया और हो रहा है । किन्तु जैसे उसके तरीकों में - प्रणालिकाओं में फर्क रहा है, उसी प्रकार उसके हेतुओं में भी ।
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शिक्षण का हेतु
भारतवर्ष आध्यात्मिक प्रधानता रखने वाला देश हमेशा से रहा है । ईश्वर, पुण्य, पाप आदि की भावना को सामने रख कर ही उसकी प्रत्येक - प्रत्येक प्रवृत्ति आज तक रही है । और यही उसकी संस्कृति है । व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ
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