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________________ समरसिंह। भक्ति थी । सञ्चाईका देवी का पूर्ण इष्ट रखते हुए बेसट आनंद पूर्वक अपना शेष जीवन इसी नगर में बिता रहे थे। समय समय पर राजा को अहिंसा के उपदेश देकर आपने उसको अहिंसा का परमोपासक बना लिया था जिसके परिणामस्वरूप राजा की श्रद्धा जैन धर्मपर पूर्णतया दृढ़ हो गई थी। जिस प्रकार बेसट राज्य कार्य में दक्ष होने के कारण राजा के कृपापात्र थे उसी तरह व्यापारिक दक्षता के कारण व्यापार आदि में भी इनको अग्रस्थान लब्ध हुमा था तथा संघ की ओर से आपको नगर सेठ की उच्च पदवी भी मिली थी। भाप में यह विशेषता थी कि राज्य और व्यापार के प्रत्येक कार्य में नागरिकों की भलाई को आप पहले सोचते थे । तथा सर्व साधारण के लाभ के लिये अपना तन मन धन तक अर्पण कर देते थे। साधर्मियों की ओर तो आपका इस से भी अधिक ध्यान था। पाप न्यायमार्ग से द्रव्य उपार्जन करते थे तथा उस द्रव्य को देव, गुरु, धर्म और साधर्मियों की भक्ति में ही व्यय करते थे। बेसटने विपुल द्रव्य व्यय करके अनेक यात्राऐं की कई स्थानों पर बड़े २ जिनालय बना के प्रभु-प्रतिमा की प्रतिष्टा करवा के ध्वजा दंड और सुवर्ण कलश चढ़ाये थे तथा कई जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी कराया । आपने अपने जीवन को इसी प्रकार के शुभ मौर आवश्यक कृत्य करते हुए बिताया । आप का इकलोता पुत्र बहुत गुणी था जिसका नाम वरदेव था । यद्यपि बेसट के एक ही पुत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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