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श्रेष्ठिगोत्र और समरसिंह |
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शाखाऐं प्रशाखाऐं उत्तरोत्तर बढ़ती गई जिन की संख्या सब मिला कर ४९८ हो गई ।
हमारे दूरदर्शी समयज्ञ श्राचार्योंने विक्रम संवत् से ४०० वर्ष के पहले ही शुद्धि का प्रचार करना आवश्यक समझ कर उसे प्रचलित कर दिया था । शुद्धि और संगठन की उपयोगिता उन्हें अच्छी तरह से मालूम थी । उस समय की चलाई हुई शुद्धि की सुप्रथा कई वर्षों तक जारी रही । यहाँ तक कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक जैन संघ में शुद्धि का जोरों से प्रचार था किन्तु जब से संकीर्णता का प्रादुर्भाव हुआ शुद्धि और संगठन के द्वार बंध हो गये । उसी समय से हमारी वर्तमान घटी आरम्भ हुई | जब से हम शुद्धि करना छोड़ बैठे इस जातिने भी अवनति के गर्त में प्रवेश करना प्रारम्भ किया। तब से निरंतर संख्या कम होने लगी है। जिसके कडुवे फल हमें अब चखने पड़ रहे हैं और पुनः आज इस बात की अावश्यक्ता अनुभव हो रही है कि शुद्धि का सिलसिला फिर प्रारंभ किया जाय । ऊपर संक्षिप्त में महाजन संघ की उत्पत्ति पाठकों के सामने रखने का प्रयत्न किया गया है अब यह बताना आवश्यक है कि हमारे चरितनायक साहसी समरसिंह के पूर्वज किस नगर में रहते थे तथा उनका गोत्र आदि क्या था ?
भी हो चुकी हैं। यह बात महाजन वंश की अवनति को सूचक है । इन मूल अद्यदश गोत्र के सिवाय भी जैनाचार्योंने क्रमशः जैनेतर जनता को प्रतिबोध दे कर अनेक गोत्र स्थापित किये थे उनकी मध्य कालीन संख्या १४४४ से भी अधिक थी
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