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श्रेष्टिगोत्र और समरसिंह। के हित आए हुए इसी वंश में सम्मिलित हो गये । आज की मांति का संकीर्ण हृदय का व्यवहार उस समय विद्यमान नहीं था। जिस साधर्मी के साथ आज भोजन व्यवहार है उस के साथ बेटी व्यवहार अब नहीं भी होता है, पर ऐसी संकुचित वृत्ति उस समय नहीं थी। वरन् उस समय तो नये साधर्मी बन्धु के साथ विशेष प्रेम का व्यवहार प्रचलित था । निर्धन भाई को थोड़ी थोड़ी सहायता सब दे कर अपने बराबरी का धनी बना देते थे यही कारण था कि उस वंश की संख्या जो लाखों पर ही थी थोड़े ही समय में कोडों तक पहुंच गई और भारत के कोने कोने में यह जाति फैल गई।
वि. सं. १३६३ में-उपकेश गच्छाचार्य श्रीककपूरिजी विरचित ' उपकेश गच्छ चरित्र' नामक ऐतिहासिक ग्रंथ के पढ़ने से मालूम हुआ है कि प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के ३०३ वर्ष पश्चात् अर्थात् वीरात् ३७३ के वर्ष में उपकेशपुर में उपद्रव हुआ था जिस की शान्ति श्रीपार्श्वनाथ के १३ ३ पट्टधर प्राचार्य श्रीककसूरिने अपनी संरक्षता में करवाई थी। उस समय उपकेश नगर में उपकेश वंशीय मुख्य १८ गोत्र प्रसिद्ध थे और वे सर्व प्रकार से उन्नति प्राप्त किये हुए थे । उपर्युक्त ग्रंथरत्न में उन गोत्रों के नामों का भी उल्लेख है। जो इस प्रकार हैं १ तातेहड, २ बाफना, ३ कर्णाट, . बलहा, ५ मोरख, ६ कुलहट, ७ विरहट, ८ श्रीश्रीमाल, ६ श्रेष्ठिगोत्र, १० संचेती, ११ आदित्य नाग, १२ भूरिगोत्र, १३ भाद्रगोत्र, १४ चिंचट, १५ कुम्भट, १६
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