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श्रेष्टिगोत्र और समरसिंह। की उत्तान तरंगों में भारत के सौभाग्य की नौका टूटनेवाली थी। जिस पवित्र भारतभूमि को एहलौकिक स्वर्ग की उपमा प्राप्त हुई थी उसी पर स्वार्थी और पेटू निर्दयी लोगोनें यज्ञ आदि के बहाने वेदियाँ पर असंख्य मूक और निरपराधी प्राणियों की गर्दनपर क्रूरतापूर्वक छुरी चलवा कर रक्त की सरिता प्रवाहित कर दी थी। उस समय के जाति और राष्ट्र के मुखिया इन पाखण्डियाँ के हाथ की कठपुतली बन चुके थे । इस तरह फरेव द्वारा हिंसा फैलाने में दुष्टोंने कुछ भी कसर नहीं रखी थी। नीति, सदाचार
और प्रेम तो केवल नाम लेने मात्र को रह गये थे । अर्थात् शास्त्रों के पृष्टोंपर ही अंकित थे। अधिकाँश जनता उन वाममार्गियों के छलरूपी पिंजरे में तोते की तरह परतंत्र थी । वाममार्गियों का साम्राज्य अखण्डरूप में प्राम ग्राम में फैला हुआ था। इन दुष्टोंने बुराई पर इतनी कमर कसी की दुराचार, व्यभिचार मादि श्रादि अनाचारों द्वारा ही स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है ऐसा भ्रमित विश्वास फैला दिया। विकारों के प्रलोमन द्वारा जनता को पतन के गहरे गढे में डालकर वे तुच्छलोग अपना स्वार्थ साधन करने के लिये इससे भी बदतर उपायों के विभित्स आयोजन कर रहे थे।
जनसमूह की शक्ति के तंतु भिन्न भिन्न मत, पंथ, वर्ण, जाति और उपजातियों के पृथक पृथक केन्द्रों में विभाजित होकर चूर चूर हो चुके थे। चारों और उपद्रवों की भट्टी जोरों से
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