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________________ समरसिंह। जनों ने भावभक्ति और श्रद्धा संयुक्त प्रयत्नकर अपने तन, मन, धन तथा सर्वस्व तक को अर्पण किया है उन बातों की साक्षी आज अनेक ऐतिहासिक ग्रंथ, शिलालेख और अन्य प्रमाण दे रहे हैं। इस खोज और शोधके युग में इस तीर्थ की प्राचीनता और महता के इतने प्रमाण उपलब्ध हुए हैं कि यदि उनका दिग्दर्शन इस जगह कराया जाय तो यह अध्याय भी एक स्वतंत्र ग्रंथ जितने आकार का हो जाय अत: प्रसंगानुसार केवल संक्षेप में ही इस अध्याय द्वारा इस परम पुनीत तीर्थाधिराज की विशाबता और महता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। यह एक प्राकृतिक नियम है कि किसी भी व्यक्ति, स्थान या पदार्थ की सर्वदा एक ही सी दशा या अवस्था नहीं रहती। नूतनता का और जीर्णता का ओतप्रोत सम्बन्ध सदासे चला आ रहा है । उत्थान और अभ्युदय के पश्चात् जिस प्रकार पतन और हीन दशा का होना स्वाभाविक है उसी प्रकार शिथिलता के पश्चात् जाहोजलाली का होना भी प्राकृतिक है। इसमें कोई आश्चर्य करने लायक बात नहीं है क्योंकि इतिहास का अध्ययन यह परिवर्तन की परिपाटी स्पष्टता से सिद्ध कर रहा है। इसी नियमानुकूल जबसे गुजरात प्रान्तकी बागडोर यवनों के हाथ में पाई इस तीर्थाधिराजपर भी पाक्रमण के बादल मंडराने लगे। एकदिन जो सौराष्ट्र प्रान्त हरा भरा चमन सुख, शांति और समृद्धि के वाताबरण में था वही बाद में ऊसर और उजड़ा हुभा दिखने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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