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________________ शत्रुजय तीर्थ । जिन्हें अव टूक कहते हैं, वस्तुपालही ने बनवाए हैं। इसी तीर्थ पर वस्तुपालने अपने गुरु, पूर्वज, नातेदार, मित्र, स्वयं अपनी (घोड़े पर बैठे हुए) तथा अपने अनुज तेजपाल की मूर्तियों भी बनवाकर स्थापित करवाईं। इसके अतिरिक्त बस्तुपालने सुवर्णमय पञ्च कलशों की स्थापना की तथा उपर्युक्त दोनों मन्दिरों में दो सुवर्णदंड और उज्वल पाषाण के मनोहर दो तोरण भी इस तीर्थ पर बनवाए | इन बातों का वर्णन तात्कालीन विद्वान लेखक और कवियाँने स्वयं अपनी आँखोंसे अवलोकन कर तथा सुनकर अपने ग्रंथों में किया है । इस बात का प्रमाण श्री उदयप्रभरि १ अथ प्रासादाद भूमर्तुः प्राप्य वैभवमद्भुतम् । मन्त्रीशः सफली चके स्वमनोरथ पादयम् ॥ भकत्याऽऽखण्डलमण्डपं नवनव श्री केलिपर्यङ्किकार्य कात्यति स्म विस्मयमयं मन्त्री स शत्रुजये । यत्र स्तम्भन-रेवत प्रभुजिनौ शाम्बाम्बिकाऽलोकन प्रद्युम्नप्रमृतीनिकिव्य शिखराण्या रोपयामासिवान ॥ गुरु-पूर्वज-सम्बन्धि-मित्रमूर्तिकदम्बकम् । तुरङ्गसङ्गते मूर्तिद्वयं स्वस्यानुजस्य च ॥ शात कुम्भमयान् कुम्मान् पच्य तत्र न्यवेशयत् । पश्चघा भोगसौख्य श्रीनिधान कलशा निव ॥ सौवर्ण दण्डयुग्मं च प्रासादद्वितये न्यधात् । श्री कीर्तिकन्दयोख्येन्नूतनाकर सोदरम् ॥ कुन्देन्दुसुन्दग्रावपापनं तोरणद्वयम् । इहैव श्रीसरस्वत्योः प्रवेशायव निर्मभे ॥ अर्कपालीतकं ग्राममिह पूजाकृते कृती । श्री वीरधवलक्ष्मापाद दापयामास शासने । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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