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शत्रुंजय तीर्थ
यात्रा भावपूर्वक की। गिरिराज की भक्ति में तल्लीन हो बारह ग्राम देव को बतौर बक्षीस के अर्पण किये इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय गुजरात प्रान्त के राजा और वहाँ की प्रजा की दृष्टि में इस तीर्थाधिराज के प्रति कितनी श्रद्धा और आदर था ।
धन्यदा सिद्ध भूपालो निरपत्य तयाऽर्दितः । तीर्थयात्रां प्रचक्रामानुपानत्पादचारतः ॥
हेमचन्द्र प्रभुस्तत्र सहानीयत तेन च । विना चन्द्रमसं किं स्यान्नीलोत्पलमतन्द्रितम् ॥
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सन्मान्य तांस्ततो राजा स्थानं सिंहासना ( सिंहपुरा ) भिघम् । दवा द्विजेभ्य प्रारूढ श्रीमच्छत्रुंजये गिरौ ॥ श्रीयुगादि प्रभुं त्वा तत्राभ्यर्च्य च भावतः । मेने स्वजन्म भूपालः कृतार्थमिति हर्षभूः ॥
ग्राम द्वादशकं तत्र ददौ तीर्थस्य भूमिपः ।
पूजायै यन्महान्तस्तां चा ( स्वा) नुमानेन कुर्वते ||वि० सं० १३३४ में श्रीप्रभाचंद्रसूरिविरचित तथा निर्णयसागर प्रेस, बंबई से प्रकाशित ' प्रभावक चरित्र के पृष्ट ३१५, श्लोक ३१०, ११, २३ और २५
"प्रथ भूपः सोमेश्वर यात्रायाः प्रत्यावृत्तः श्रीसिद्धाधिपो वैतोपत्यकायां दत्तावासः। X x x शत्रुंजय महातीर्थ सन्निधौ स्कन्धावारं न्यवात् । x + x गिरिमधिरुत्य गङ्गोदकेन श्रीयुगादिदेवं स्नपयन पर्वतसमीपवर्ति ग्रामद्वादशक शासनं श्री देवार्चाये विश्राणयामास ॥
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- वि० सं० १३६१ में श्री मेरुतुंगसूरि विरक्ति तथा रामचंद्र दीनानाथ शास्त्री द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ' प्रबंध चिंतामणी के पृष्ट १६० और १६१ से
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