SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत्रुजय तीर्थ । दृष्टि से देखा जाता है तथा यह ग्रंथ खूब प्रसिद्धी भी पा चुका है । इस ग्रंथ सम्बन्धी ऐतिहासिक प्रमाण भी प्रचुरता से प्राप्त हुए हैं । आप श्री सिद्धयोगी नागार्जुन के भी गुरु थे और नागार्जुनने अपने गुरु (पादलिप्तसूरि) के स्मारकरूप श्रीशत्रुजय गिरिराज की तलहटी में पालीताना' नामक नगर बसाया। यह नगर आज पर्यत भी विद्यमान है। भद्रेश्वरसूरि विरचित कथावली में उल्लेख है कि पादलिप्तसूरि आचार्यने श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। जावड़शाह के उद्धार के पश्चात् सौराष्ट्र प्रान्त में बौखों का पाना प्रारम्भ हुआ जिस के परिणाम स्वरूप जहाँ तहाँ बौद्धों की ही प्राबल्यता दृष्टिगोचर होने लगी । बौद्धों का जोर अन्तमें इतना वृद्धिगत हुया कि श्रीशत्रुजय तीर्थ भी उनके हस्तगत हो चुका था । यह समय जैनों के लिये सचमुच अति विकट था किन्तु उस गिरी हुई दशामें भी बड़े बड़े दिग्विजयी आचार्य प्रवर अन्यान्य प्रान्तों में विहार कर रहे थे । वह दशा अधिक दिनोंतक नहीं रही । समयने पुनः पलटा खाया। वि. सं. ४७७ की बात है कि चन्द्रगच्छीय आचार्य श्री धनेश्वरसूरिने सौराष्ट्र प्रान्त में पदार्पण कर वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य को उपदेश द्वारा जैन बना के शत्रुनय तीर्थ का उद्धार करवाया और शिलादित्य १ “सिरिसत्तुजयतलहटियाइ नागज्जुणेण निम्मवियं । मरिण नामेण सिरिपालित्तय पुरं तइया ॥" -वि० सं० १४४२ में श्रीसंघतिलकाचार्य विरचित तथा दे० ला० फंड सूरत द्वारा प्रकाशित सम्यकत्वसप्ततिवृत्ति के पृष्ठ १३७ वे से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy