________________
२३८
समरसिंह.
चतुर्थभाषा संघपतिदेसलु हराषियउ अति धरमि सचेतो। पणमइ सिधसुरिपयकमलो लमरागरसहितो। वीनती अम्हतणी प्रभो अवधारउ एक । तुम्ह पसाइ सफल किया अम्हि मनोरहनेक ॥ १ ॥ सेत्तुजतीरथ ऊधरिवा ऊपन्नउ भावो । एकु तपोधनु आपणउ तुम्हि दियउ सहाउ। मदनु पंडितु आइसु लहवि आरासणि पहुचइ । सुगुरवयणु मनमाहि धरिउ गाढउ अति रूचा ॥२॥ राणेरा तहि राजु करइ महिपालदेउ राणउ । जीवदया जगि बाणिजए जो वीरु सपराणउ । पातउ नामिहि मंत्रीवरो तसुनणइ सुरजे । चंद्रकन्हइ चकोरु जिसउ सारइ बहुकजे ॥३॥ राणउ रहियउ आपुणपई पाणिहि उपकंठे। टंकिय वाहइ सूत्रहार भांजइ घणगंठे। फलही प्राणिय समरवीरि ए अतिबहुजयणा । समुद्र विरोलिउ वासुगिर्हि जिम लाधा रयणा ॥४॥ कुमारसि उछवु हूमउ त्रिसींगमइनइरे । फलही देषिउ धामियह रंगु माइ न सहरे । अभयदानि भागलउ करुणारसचित्तो। गोचि मेन्हावह पइरालुमह ापड बहुविचो ॥ ५॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com