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समरसिंह
राई की युक्ति को जन्मभर नहीं भूला । आपश्री के प्रसाद ही से पुनः शासन करने का योग मिला था ।
उसे
बादशाह से इच्छित फरमान प्राप्त कर हमारे चरितनायकने जिनेश्वर की जन्मभूमि मथुरा और हस्तिनापुर में संघपति हो कर संघ तथा आचार्य श्री के साथ तीर्थयात्रा की थी ।
इस के पश्चात् चरितनायकजी तिलंग देश के अधिपति ग्यासुद्दीन के पुत्र उल्लखान के पास भी रहे । उल्लखान भी आपश्री को भाई के सदृश समझता था तथा तदनुरूप ही व्यवहार करता था । उल्लखानने आपश्री की कार्यकुशलता तथा प्रखर बुद्धि को देख कर तिलंग देश के सूबेदार के स्थानपर आपश्री को ही नियत कर दिया | इस पद को पाकर भी समरसिंहने अपने स्वाभाविक उदार गुणों का ही परिचय दिया । तुर्कोंने ११,००,००० ग्यारह लाख मनुष्यों को अपने यहाँ कैद कर लिया था । समरसिंहेने उन्हें छोड़ दिया | इस प्रकार अनेक राजा, राणा और व्यवहारी मी हमारे चरितनायक की सहायता पाकर निर्भय हुए थे 1
चरितनायकजीने सर्व प्रान्तों से अनेक श्रावकों को सकुटुम्ब
१ इन प्राचार्यश्रीने शत्रुंजय, गिरनार और फलौघी आदि तीर्थों को मुसल मानी राज्यकाल में सुरक्षित रखने का आदर्श प्रयत्न किया था ।
राष
२ वि० सं० १६३८ में विरचित कवि नयसुन्दरके ग्रंथ श्रीशत्रुंजय तीर्थोद्धारक इस प्रकार उल्लेख है कि- " नवलाख बंधी (दी) बंध काप्या, नवलाख हेम का तस प्राप्या; तो देसलहरीयें अन्न चाख्युं, समरशाहे नाम राख्युं " ढाल १० वीं
में
कढ़ी १०१ वीं ।
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