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________________ समरसिंह. संघ के पुनः शत्रुजय जाने के पूर्व प्राचार्य श्रीसिद्धसरिजी किसी रोग से पीड़ित हुए थे । अतः आप जीर्णदुर्ग ( जुनागढ़ ) नगर में कुछ समय के लिये ठहरे थे। संघ के प्रमुख प्रमुख व्यक्तियोंने एक बार आचार्यश्री से विनती की कि श्राप का शरीर इस समय व्याधियुक्त है और कैवल्यज्ञान के अभाव में अन्य कोई माप के आयुष्य की अवधि को बता नहीं सकता । अच्छा हो यदि भाप अपनी प्राचार्य पदवी किसी सुयोग्य शिष्य को इस समय प्रदान करावें । गुरुश्रीने सब के समक्ष अपने अभिप्राय को स्पष्टतया प्रदर्शित कर दिया कि मेरी आयु पांच वर्ष, एक मास नौ दिवस और शेष है । सत्यदेवी का कहा हुआ सुयोग्य शिष्य भी विद्यमान है। जिस को मैं अलग नहीं करूंगा और समय आने पर सूरिपद भी देदूंगा । आप लोग निश्चिन्त रहिये । सर्व संघने पुनः प्रार्थना की कि इतना होनेपर भी हमारा नम्र निवेदन है कि श्रीपूज्यने जिस प्रकार स्थावर तीर्थ स्थापित किया है उसी प्रकार हमारे पर महरबानी कर जंगम तीर्थ भी। स्थापित करने की कृपा करें। इस प्रार्थना को स्वीकार कर प्राचार्यश्रीने मेरुगिरि नामक अपने शिष्य को सरिपद अर्पए कर उस का नाम ककसरि रखा । वि० सं० १३७१ में फाल्गुन शुरू7. ५ को पद हुमा । उस समय चैत्रगच्छीय भीमदेवने पदस्थापना । का श्लोक कहा था जिस में श्रीककसरि की प्रशंसा की थी कि जिन के उदय में सर्व कल्याण सिद्ध होते हैं। सरिपद का महोत्सव मं. धारसिंहने किया था । पाँच दिन उसी जगह रह कर। AR? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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