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२८.
समरसिंह. इच्छित आजीविका अर्पण की गई । इस प्रकार सारे जनों को संतोषित कर संघपति देसलशाह शत्रुजय तीर्थपर पुण्यवृक्ष का अंकुर वपन कर उज्ज्यंत तीर्थ को नमने के लिये गये।
शुभ मुहूर्त में सबसे आगे देवालय चला और उसके पीछे देसलशाह संघ के सब लोगों के साथ चले । सब संघ अमरावती (अमरेली) धादि गांवों में अद्भुत कृत्यों से जिनशासन को प्रभासित करता हुआ क्रमसे उज्जयंतगिरि पहुँचा । जूनागढ़ नगर के स्वामी महीपालदेव सं. देसलशाह तथा समरसिंह के अलौकिक गुणों से आकर्षित हो संघ के सम्मुख गये थे । इन्द्र उपेन्द्र की नाई शोभित वनचक्रयुक्त हाथवाले महीपाल और समरसिंह परस्पर प्रेमपूर्वक मिले । आपस में मधुरालाप होने लगा। विविध भेंट देकर हमारे चरितनायकने महीपालदेव को तोषित किया । हमारे चरितनायक को साथ लिये हुए जूनागढ़ नरेश महीपालदेव देसनशाह से मिले | देसलशाह और महीपालदेव के परस्पर क्षेमप्रभालाप हर्षपूर्वक हुआ । पश्चात् संघः समरसिंह की - अर्थात् सगर से भी मैं समरसिंहको रेखा के हिसाब से अधिक समझता हूँ जिग्ने कि म्लेच्छों के बलसे व्याप्त तीर्थ को कलिकाल में भी उद्धार कर रक्षा की। समरसिंहने तुष्ट होकर उसे इतना प्य प्रर्पण किया कि जितना उसके जीवन पर्वत निर्वाह के लिये पर्याप्त था। . : ?
उपदेशतरंगिणी (यशोविनय यमाला से प्रकाशित) के पृष्ठ १३७ वे से. .. पं. गुमशशिल मणि के कि... १५३५ में रचित ग्रंथ पंचशती प्रबंध (कथाकोष)
२१६वें सम्बन्ध में उल्लेख किया गया कि उपर्युक लोक संघपूजा के समय रममदारा कहा गया था---
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