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प्रतिय के पयात् । घोड़े, वन और द्रव्य देकर उनका यथायोग्य सन्मान किया । इस के अतिरिक्त वहाँ एक वाटिका थी जिस का रहट टूटा हुआ था और जहाँ के पौधे पानी के अभाव से कुम्हलाए हुए थे जिस के चारों ओर वाड़ का अभाव था उसे चतुर मालियों के सुपूर्द कर प्रचुर द्रव्य देकर उन वाटिकाओं का इस लिये पुनः सुधार किया गया कि जिस से प्रभु की पूजा के लिये नित्य नये नय सुगंधित पुष्प पर्वत पर पहुँचा दिये जॉय । जिनेन्द्र की सेवा में निरत सारे पूजारियों तथा जिन-गुण-गान करनेवाले सर्व सुरीले मधुरभाषी गवैयों तथा जिन बिंब तथा मन्दिर के जीर्णोद्धार में दत्त हो कर काम करनेवाले कार्यकुशल सारे चतुर सूत्रधारों को
१ रत्नमंदिरमणि का कहना है कि उस प्रतिमोद्धार के उत्सत्र में संघपूजा के १४०० सोना के नकर वेढ आए उस अवसर पर भूल से वाणोतर महत्ताने परदशी मल नामक भाट को लाख से भरा हुमा वेढ दे दिया । बाद में जब स्वाधर्मीवात्सल्य (संघ बेवनार) के समय उस भाटने गरम गरम चावल और दाल परोसते समय अपने वेढको उतारकर जमोनपर रख दिया उस समय हमारे चरितनायकने उस भाट
कारण पूछा कि कहो तुमने यह आभूषण क्यों उतार दिया ? भाटने उत्तर दिया कि बापका जो यह पुण्यमय दान हैं उस को जाकर य द में अपने गांव के श्रावकों को बतलाऊमा तो वे इसका जरूर अनुमोदन करेंगे । किन्तु यदि मैं इस को इस समय नहीं उतारता हूँ तो वेढ के अंदर जो लाख भरी है वह चावल और दाल मादि को गर्म माप के कारण पिघल कर निकल जायगी और यह खाली वेढ उतना अच्छा मालूम नहीं होगा । इसपर समरसिंहने उस भाट को दस नई अंगुलियों और दी। प्राप्त कर माट समग्र संघ के समक्ष उच स्वर में बोल उठा मुनिये ! मुनिये !!
अधिकं रेखया मन्ये समर सगरादपि । कलो म्लेच्छ बलाकीण येन तीर्थ समुद्धतम् ॥
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