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समर सिंह
जीने जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा से वस्त्रों को दूर किया और दोनों नेत्रों को सौवीर - सीतायुक्त उन्मीलन किया । गाजेबाजे से
—पं० विवेकधीरगणिकृत शत्रुंजयोद्धार प्रबंध से जो मु० जिनविजयजी द्वारा सम्पादित हो कर आत्मानंद सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है । भावार्थ – वृद्धतपागण में पहले रत्नाकर सुगुरु हुए जिस से यह निर्मल रत्नाकर नामक गण ( गच्छ ) प्रवृत्त हुआ । उन्होंने समरशाह के किये हुए उद्धार में वि. सं. १३७१ में प्रतिष्टा की । अन्य प्रशस्तियों में भी कहा है कि वि. सं. १३७१ में त्रिभुवन मान्य, संसार में वदान्य स्वनाम धन्य समरशाहने उत्सवपूर्वक श्री शत्रुंजय तीर्थ के मूलनायक युगादीश्वर प्रभु की प्रतिष्ठा रत्नाकरसूरि द्वारा करवाई -
संवत् तेर एकोतरे- श्री प्रोसवंश शणगार रे ।
शाह समरो द्रव्य व्यय करे- पंच दशमो उद्धार रे, धन्य०
श्री रत्नाकर सूरिवरू, वडतपगच्छ शणगार रे ।
स्वामी ऋषभज थापीया, समरे शाहे उदार रे, धन्य०
- वि० सं० १६३८ में कवि नमसुंदर द्वारा रचित शत्रुंजय रास से ( ढाल ९ कडी ९३-९४ )
आचार्य कक्कसूरिजीने नाभिनंदनोद्धार प्रबंध के प्रस्ताव चतुर्थ के श्लोक नंबर ५९५ में उल्लेख किया है कि - " बृहद्गच्छ के रत्नाकरसूरि साथ गए थे । प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अन्य आचार्यों के साथ ये प्राचार्य भी सम्मिलित थे । इस में बताए हुए वृहद् गच्छ के रत्नाकरसूरि और वृद्धतप गण ( वडतप मच्छ ) में हुए रत्नाकर गच्छ के प्रवर्तक रत्नाकरसूरि-ये दोनों एक ही आचार्य हो तो भी वि. सं. १३७१ में शत्रुंजय तीर्थ के मूलनायक श्री आदीश्वर प्रभु की प्रतिष्टा करनेवाले उपकेश गच्छ के सिद्धसूरि ही प्रभुख थे । यह सत्य स्वीकार करने योग्य है कि इस प्रसंग पर आचार्य रत्नाकरसूरिजीने अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्टा कराई होगी क्योंकि यह सर्वथा सम्भव हो सकता है । पर मूलनायक श्री युमादीश्वर की अञ्जनशिलाका ( प्रतिष्टा ) कर्ता तो श्री उपक्रेश मच्छाचार्य भी सिखसूरि ही हैं ।
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